दौर – ए – कश्मकश
आजकल ये क्या हो गया है ?
इंसां भीतर से कुछ बाहर से कुछ नज़र आता है ,
इस बदलते दौर में कौन हमदर्द ?
कौन कम-ज़र्फ़ ? पहचानना मुश्किल है ,
दोस्त के नक़ाब में छुपा दुश्मन पहचाना मुश्किल है ,
इंसां की फ़ितरत किधर करवट ले समझ नही आती,
बनती बात बिगड़ते देर नही लगती ,
न जाने कब जीत हार में बदल जाए ,
पासा पलटते देर नही लगती ,
लाख कोशिश पर भी दिल तसल्ली का
मोहताज़ रहता है ,
ख़़यालो के सराबों में मन हमेशा
भटकता रहता है।