दो मुक्तक
दो मुक्तक
******
जिंदगी
******
सोचिए तो किस लिए हमको मिली है जिंदगी ,
शूल के संँग फूल सी डाली खिली है जिंदगी ,
अब हमें हर दर्द अपना यार सा लगने लगा ,
पांव के छालों सरीखी नित छिली है जिंदगी ।
******
मोबाइल
******
तार, चिट्ठी, कैमरा, घड़ियां, कलेंडर, खा गया ।
हाथ में जब से हमारे ये मो’बाइल आ गया ।।
है बहुत बेदर्द बचपन को निगलने अब लगा ।
जब से बच्चों के दिलों को ये निगोड़ा भा गया ।।
०००
महेश जैन ‘ज्योति’,
मथुरा ।
***