दो टूक चुनाव पर
न मोदी से कोई गिला , न शिकवा मुझे सोनिया से।
न दोस्ती राहुल से,न माया में दिल चस्पी है ।
न तो न कोई बैर सिसौदिया से।
लोकतन्त्र का महा पर्व था ,अवसर था स्वयं
चुनने का।
योद्धाओं का महासमर था,खुद के सपनों को बुनने का।
नए नए प्रयोगों द्वारा खुद को साबित करने का।
खेल मदारी का सा भैया जो जितना बेहतर कर पाए।
दिखा दिखा नित खेल तमाशे जनता को बहका पाए।
लोकतंत्र के मेले में कोई नया मदारी न टिक पाए।
जो जो नौसिखिए थे वो सब के सब हार गए।
जो शतरंज के गुरु द्रोण थे मोदी बाजी मार गए।
राहुल,बुआजी डिप्रेशन में अखिलेश अजित बेकार भये।
मोदी फिर से छाए देश में,बाकी सब तड़ी पार गए।
वक्त जिसे देता है संबल कोई रोक नहीं पाता है।
चाय बेचने वाला देखो प्रधान मंत्री पुनः बन जाता है।
और जिसे दे वक़्त ही धोखा टिका नहीं रह पाता है।
रेखा एक दिन कोंग्रेस जैसा देश छोड़ चला जाता है।
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