दो जून की रोटी
भार्या ने कहा कि मैं
अब बस एक गृहणी हूँ,
अपना असल वजूद खो
बस जीवन संगिनी हूँ।
बस एक काम करने की
मशीन बन रह गयी हूँ,
कितना भी करूँ काम
किसी औकात की नही हूँ।
सोचा था एक गाड़ी के
दो पहिये बन चलूंगी,
आर्थिक मजबूती संग
जीवन की राह चलूंगी।
दोनों साथ मिल कमाएंगे
हर शौक पूरे होंगे,
क्या पता तेरी माँ के कारण
घर मे हम सड़ेंगे।
केवल अर्थ से ही प्रिये
शांति नसीब नही होती,
व्यर्थ की भाग दौड़ से
जिंदगी नरक बन बनती है।
दो जून की रोटी कमाने में
निर्मेष जीवन बीत जाता है,
वास्तविक सुख हमें कही
नजर कहाँ आता है?
निर्मेष