दो घूंट
कई बरस के बाद अचानक, कल उसको देखा तो आँखें,
भय मिश्रित विस्मय से जैसे, फैली की फैली रह गईं,
कहां गया वह उल्लासित, उद्भासित चेहरा,
जिसका पता पूछती खुशियां,
स्वयं खिंची सी आ जाती थीं,
गये समय के क्रूर, कुटिल, कलुषित हस्ताक्षर,
उसके सर से पांव तलक मैं देख रही थी,
बहुत पूछने पर बोला वह —
क्या बतलाऊं, किसी एक दिन,
उत्सुकता, जिज्ञासा में ही भरे गये वो दो घूंट,
क्मशः बोतल में ढल गये, जीवन को भी खा़क कर गये,
उस बोतल की आग में मेरे घर-बार परिवार जल गये,
सर्वप्रथम था बिका पसीना, फ़िर मेरा ईमान बिका,
पत्नी का मंगलसूत्र और फ़िर बच्चों के सपने भी बिक गये,
मैं समझा था मैं शराब पीता हूँ लेकिन सच तो ये है,
ये शराब ही मुझको पी गयी, जीवन को भी रीता कर गयी,
अब ख़ाली बोतल सा ही ये, रीता रीता सा जीवन है,
गौतम और गांधी की पावन धरती को कलुषित करने का
संभवतः अनिवार्य दन्ड है।