दो किनारे
एक इस छोर तो एक उस ओर,
नदी के दो किनारे,
चुपचाप निहारते,
दूर से इक दूजे को,
एकटक-एकठौर,
दोनों चाहतें हों जैसे,
कि हो जाए वो किनारा,
भी इस ओर,
पड़ती बीच में नदी,
शांत सी बहती
देखती दोनों के हावभाव,
शायद सब थी समझती,
दोनों किनारों के मध्य,
कभी गूँज उठता,
शब्दों का शोर,
अंनत रूपों में बरसती,
प्रश्नों की बौछार,
उत्तर था ज्ञात दोनों को,
फिर भी अनगिनत प्रश्न,
ले लेते थे आकार,
एक था कहता कि
स्पष्ट है,यही भाग्य हमारा,
दूसरा सुनना चाहता था,
केवल वही,
जो उसे था सुनना-सुनाना,
अपना अधिकार जमाना,
नदी दोनों के समझौते पर आतुर,
रहती शांत हो दोनों को निहारे,
उसे दूर से दिखते,
मिल रहे वो किनारे,
अब यह मात्र भ्रम था,
या सच्चाई किनारों की,
कौन जाने,
कौन जाने कब बहती धारा ने,
दोनों को ओर जुदा किया या मिलाया,
बीतता जा रहा समय,
पर नदी के दोनों तरफ़,
भावों-अहसासों के हीरे जड़े थे,
नदी के वो दो किनारे,
अलग-अलग
हाँ,अलग-अलग खड़े थे…………..