दो किनारे रह गये…
अपनों के लिए हमेशा
हारती रही!
जीतने का हुनर
धीरे-धीरे भूलती गयी
सोचा था एक दिन
सब सुलझ जायेगा
ये कहाँ मालूम कि
मैं इतना उलझ जाऊँगी!
हारने की अब आदत सी
हो गयी!
रिश्तों को जीतने का
फिर से हौसला न रहा!
ज़िन्दगी में दो किनारे
हो गये
हार और जीत के वारे-न्यारे
हो गये!
कहाँ से शुरु हुआ सफर
कहाँ पे खत्म हुआ
कुछ समझ नहीं
बस ज़िन्दगी के दो
किनारे रह गये!
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शालिनी साहू
ऊँचाहार, रायबरेली(उ0प्र0)