दो उंगलियाँ
कैद है नफ़्स के दरमियाँ
उसकी दो उंगलियाँ जो
कभी मचली थी दिल पे
और धड़क उठा था दिल
उसका और वो ही थी
जो जेहन में बे इख़्तियारी
रखे हुए बे कस थी
खुद अपने दरमियाँ
शायद पता था उसे
नफ़्स में उसका ज़िक्र
छिड़ चुका होगा और
वो अनजान है दिल के
कोने में समाये हुए उन
दो उंगलियों से जो
समा चुकी है नस-नस में
नफ़्स के और मुतमुइन है
मिलने को आपस में उनसे
जो इस्बात है इश्राक का
जिससे चमक रहा है ये
दिल और क़ैद है नफ़्स की
वो हरकतें जो मचलती थी
कल तक तुम्हे देखकर
ए मेरी जान-ए-ग़ज़ल।।
-आकिब जावेद
इस्बात = प्रमाण, साक्ष्य, सबूत
इश्राक़ = उषा, प्रभात, चमक