ग़ज़ल
——ग़ज़ल—–
ग़हन कौन सा लग गया ज़िन्दगी को
छुपी है कहाँ ढूँढ़ता हूँ ख़ुशी को
रहे तीरग़ी का बसेरा ही दिल में
तरसता हूँ मुद्दत से मैं रौशनी को
सिमम पर सितम कर रहा है ज़माना
समझता न कोई मेरी बेक़ली को
बचाए या लूटे मेरा कारवां तू
समझ ही न पाऊँ तेरी रहबरी को
तवक़्क़ो है दीदार की इसलिए ही
नहीं छोड़ पाऊँ मैं तेरी गली को
दिखा दो ज़रा आइना है जो बातिल
तभी जान पाए वो झूठे सही को
मेरा दिल चुराया है जिसनें ऐ “प्रीतम”
नहीं भूल सकता हूँ मैं उस परी को
प्रीतम राठौर भिनगाई
श्रावस्ती (उ०प्र०)