दोहे
सागर प्यासा ही रहा, पी पी सरिता नीर,
कैसी अनबुझ है तृषा, कैसी अनकथ पीर।
सागर से मिलने चली, सरिता मन मुस्काय,
बाँहों में लेकर उसे, गहरे दिया डुबाय।
सौ सौ बार मरे जिया, सौ सौ बार जिलाय,
आंसू बह बह थे जमा, सागर नाम धराय।
एक समंदर इश्क़ का, आँखों लिया बसाय,
डूब गए गौहर मिले, डरे मौज ले जाय।
तू सागर नदिया तेरी, तुझमें आन समाय,
खुद को खोकर सब मिले, प्रीत यही सिखलाय।
आज सफीना सौंपती, सागर रखना मान,
तेरे ही विश्वास पर, टिकी हुई अब शान।
दीपशिखा सागर –