दोहा पंच
भारत की अब आत्मा, होती है हलकान।
नए दौर में डूबकर, नीच बना इंसान ।।
हिन्दू मुस्लिम के सिवा, रहा नहीं कुछ काम।
मिलकर धागा प्रेम का, थाम सके तो थाम।।
भूल बुराई आपसी, कर लो अच्छे काम।
बंद आंख से रब दिखे, मन में चारों धाम।।
बैर सभी हैं पालते, मन में आज हज़ार।
मिला नहीं कबिरा कहीं, खोज लिये बाजार।।
‘अरशद’ धागा प्रेम का, तोड़ा लाखों बार
अपनेपन की चिंता किसे, प्रेम बना व्यापार।।