दोहे
कविता किरकी कांच जस, हर किरके को मोह
छपने की लोकेषणा, करे छंद से द्रोह
आत्म मुग्ध लेखन हुआ, पकड़ विदेशी छन्द
ताका, महिया, हाइकू, निरस विदेशी कंद
तंत्र बड़ा, गण भी बड़ा, पर सूरत बदरंग
नेता सीरत को गंवा, घूमें नंग धडंग
पुलिस, कोर्ट, लोकल निगम, कर्म क्षेत्र बदनाम
बिना गांठ ढीली किये, बने वहां नहि काम
चढ़ें चुनावी नाव पर, कातिल, चोर, दबंग
अधिकांश ये ही बनें, लोक सभा के अंग
तिनका जिसके पग न कर, और हाड़ न मांस
डूबे को बचायेगा? क्यों करते परिहास
स्वस्थ तन और शुद्ध मन, हंसा रूढ़ विवेक
तीनों गुण के धारती, हों लाखों में एक