दोहे विविध प्रकार
धार्मिक
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सूर्यदेव प्रभु कीजिए, मम जीवन परकाश।
नहीं चाहता आपसे, मिले मुझे आकाश।।
शनीदेव को कीजिए, अर्पित तिल अरु तेल।
जीवन से मिट जाएगा, बाधाओं का खेल।।
बजरंगी का ध्यान कर, जपिए जय श्री राम।
मन को रखकर नित्य ही, इतना करिए काम।।
प्रभु जी अब तो आप ही, करिए मेरा न्याय। विनय करुं मैं आपसे, बंद करें अध्याय।।
ईश कृपा बिन हो नहीं , इस जग का कल्याण।
अब तो मानो आप भी, दिया उसी ने प्राण।।
वंदन गुरु जी आपका, अनुनय विनय हजार।
हमको भी समझाइए, छंदों का कुछ साल।।
ईश्वर से संबंध का, मिलता है आधार।
होत जहाँ संस्कार है, अरु विचार सत्कार।।
हनुमत मेरी भी सुनो, बस इतनी सी बात।
कुछ मेरी फरियाद है, कुछ मेरे जज़्बात।।
सीता माँ ने दे दिया, हनुमत को आदेश।
धरती पर रावण बढ़े, तुम कुछ करो विशेष।।
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विविध
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आज द्रौपदी कह रही, कृष्ण खड़े क्यों मौन।
जिंदा मुरदे कह रहे , तुझे बचाए कौन।।
कहांँ आपको भान है, मन की मेरे पीर।
तभी आप हैं प्रेम से, करत घाव गंभीर।।
आपकी चिंता मैं करूँ, यह क्या कोई गुनाह।
कहाँ मांगता आपसे, दे दो मुझे पनाह।।
हारा अपने आप से, अब न जीत की चाह।
खुद मिल जाएगा मुझे, आगे की नव राह।।
जिसकी पावन धारणा, निज कामना पवित्र।
है जिसके सत्कर्म ही, दिखे साधना चित्र।।
झूठ- मूठ की दिव्यता, नहीं पालना धर्म।
व्यर्थ साधना आपकी, स्वयं जानिए मर्म।।
दिव्य धारणा आपकी, सकल भावना शुद्ध।
करें श्रेष्ठता कर्म भी, बन जाऐंगे बुद्ध।।
मेरी अपनी धारणा, मातु भारती मान।
नित्य साधना यह करूँ, आप लीजिए जान।।
कल कल नदिया बह रही, बिना राग या द्वेष।
कुछ भी नहीं अशेष है, सब ही लगे विशेष।।
गंगा सबकीमाथ है, नदी कहें कुछ लोग।
मर्यादा उसकी हरें , बदले में फल भोग।।
नदियों को हम मानते, निज जीवन का प्राण।
रौद्र रूप जब धारती, कर देती निष्प्राण।।
आज उपेक्षित हो रही, नदियां सारे देश।
नहीं समझ हम पा रहे, जो उसका संदेश।।
नदियां नाले सह रहे, प्रदूषण की मार।
दुश्मन बन बाधित करें, उनका जीवन सार।।
राज्य व्यवस्था फेल है, और केंद्र भी मौन।
ईश्वर को भी कब पता, सत्ताधारी कौन।।
जिम्मेदारी राज्य की, रखे केंद्र भी ध्यान।
जनता है सबसे बड़ी, इसका भी हो भान।।
नारी लुटती नित्य है, शासन सत्ता फेल।
राज्य केंद्र दोनों करें , रोज रोज ही खेल।।
तालमेल दिखता नहीं, केंद्र राज्य के बीच।
जनता पिसती रोज है, दोनों उसको खींच।।
करता है अब आदमी, नित्य दानवी काम।
और सर्वदा ले रहा, मर्यादा का नाम।।
आज मानवी शीश पर, चढ़ा लालची रंग।
बन दिखावटी बुद्ध वो, मानवता बदरंग।।
सूर्य किरण के साथ ही, होता है नित भोर।
बढ़ जाता है जगत में, प्रातकाल का शोर।।
सुबह सबेरे दे रहा, मैं तुमको आशीष।
मंगलकारी हो दिवस, और मिले बख्शीश।।
जाप वाप से कुछ नहीं, फर्क पड़ेगा मित्र।
पहले मन के चित्र को, करिए आप पवित्र।।
रखिए ऐसी भावना, मन में ना हो पाप।
फिर डर रहेगा दूर ही,शाप संग संताप।।
बिन कारण होता नहीं, जग में कोई काम।
आप मान लो बात यह, मत लो सिर इल्जाम।।
आज कौन लेता भला, नाहक ही सिरदर्द।
बिन कारण के आजकल, कौन उड़ाता गर्द।।
ऐसा लगता क्यों मुझे, सूना है संसार।।
बिना छंद के ज्ञान क्या, मेरा जीवन बेकार।।
बिना विचारे जो करे, ऐसे वैसे काम।
जब तब वो होता रहे, नाहक ही बदनाम।।
जब तक है श्रद्धा नहीं, जप तप सब बेकार।
होता है कुछ भी नहीं, क्यों करते तकरार।।
फैल रही है विश्व में, युद्ध नीति की रीति।
समझ नहीं क्यों आ रही, हमें बुद्ध की नीति।।
श्रद्दा से ही जाइए, गुरू शरण में आप।
मन शंका से हो रहित, तभी कटे संताप।।
व्याकुल भूत भविष्य में, नाहक हो हैरान।
जीना तो अब सीख लो, वर्तमान में जान।।
सीख हमें मत दीजिए, लेकर प्रभु का नाम।
करना है जो कीजिए, अपने मन का काम।।
आज बहुत दुख हो रहा, देख गलत व्यवहार।
ऐसे चलता है नहीं, जीवन का संसार।।
जात पात का हो रहा, राजनीति में खेल।
नेता संग दल पास हैं, जनता सारी फेल।।
नारी शोषण है बना, राजनीति की रेल।
जैसे नारी हो गई, सांप सीढ़ि का खेल।।
नारी शोषित हो रही, नारी ही है मौन।
समझ सको तो दो बता, इसके पीछे कौन।।
साधन सबको चाहिए, करना पड़े न काम।
मुफ्त सदा मिलता रहे, होये अपना काम।।
गर्वित हम सब आज हैं, मेरे प्रिय सुकुमार। चमको बन आदित्य ज्यों, जाने सारा संसार।।
मात पिता का नित्य ही,आप बढ़ाओ मान। और याद यह भी रहे, तुम हो इनकी जान।।
गणपति जी अब आप ही, आकर करो उपाय।
मां बहनों की लाज का, कोई नहीं सहाय।।
नारी अत्याचार का, नित्य बढ़ रहा रोग।
इसको क्या हम आप सब, मान रहे संयोग।।
मातृशक्तियों आप ही, कर लो आज विचार।
काली चंडी तुम बनो, या दिखना लाचार।।
चीख रही है द्रौपदी, और कृष्ण हैं मौन।
बड़ा प्रश्न ये आज है, आगे आये कौन।।
टुकुर टुकुर हम देखते, मौन खड़े चुपचाप।
बहरे भी हम हो गए, सुनें नहीं पदचाप।।
तू ही तो बस खास है, तू ही है मम आस ।
नहीं भरोसा और पर, बस तुझ पर विश्वास।।
मातु पिता का कर रहे, जी भरकर अपमान। फिर भी इच्छा कर रहे, मिले हमें सम्मान।।
नारी सबला हो गई, कैसे कहते आप। अबला नारी सह रही, मन मानुष का पाप।
सागर सा बनिए सभी, मत करना तुम भेद।
जाति धर्म की आड़ में, नहीं करो अब छेद।।
बहती नदियां कब करे, जहाँ तहाँ आराम।
करती रहती है सदा, जो उसका है काम।।
आज दुखी इंसान है , कैसे कहते आप।
इसीलिए है बढ़ रहा, आज धरा पर पाप?।।
खूब कीजिए दुश्मनी, संग गीत संगीत।
राग बेसुरा गाइए, मान लीजिए मीत।।
कुछ ऐसे भी लोग हैं, जो हँसते शमशान।
उनको कैसे दंड दूँ, सोच रहा भगवान।।
दुखी आज भगवान भी, देख जगत का हाल।
हर कोई करता यहाँ, खुलकर आज बवाल।।
आज मरा वो आदमी, हमको क्या संताप।
हमको तो करना अभी, जाने कितना पाप।।
राम नाम ही सत्य है, जान रहा इंसान।
जब तक वो जिंदा रहा, बना रहा अंजान।।
मुर्दे भी अब कह रहे, सत्य राम का नाम।
जो जिंदा वे पूछते, कहाँ मिलेंगे राम।।
कौन दुखी हैं जगत में, दिखा दीजिए आप।
फिर इतना क्यों हो रहा, नित्य जगत में पाप।।
घात और प्रतिघात से, डरते सारे लोग।
लोगों की मजबूरियाँ, या कोई संयोग।।
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सुख दुख
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सुख -दुख रहता है सदा, सबके जीवन साथ।
सुख आता तब हंस रहे, क्यों दुख माथे हाथ।।
सुख दुख मे रहिए सदा, हंसते गाते आप।
मत कहिएगा आप भी , दुख है केवल पाप।।
दो-धारी तलवार सी, सुख दुख का है वार।
इसके बिन होता कहाँ, जीवन नैया पार।।
सुख-दुख तो अभिलेख है, भाग्य कर्म का सार।
बस अच्छे रखिए सभी, अपने शुद्ध विचार।।
सुख -दुख में भी मत कभी ,आप कीजिए भेद।
दोनों में होते कहाँ, आपस में मतभेद।।
सुख के साथी हैं सभी, दुख में रहे ना एक।
जीवन में होता यही, मान रहे प्रत्येक।।
समय चक्र का खेल है, सुख दुख के निज दाँव।
कहीं धूप व्याकुल करे, कहीं शीतला छाँव।।
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लाचार / संस्कार
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हम ही तो शैतान हैं, बने हुए पाषाण।
दबा रहे आवाज को, हो नारी कल्याण।।
अपने तो संसार का, अपना है अंदाज।।
आप बड़े लाचार हैं,या फिर नव आगाज़।।
जनता क्यों लाचार है, बना हुआ पाषाण।
अग्रिम है आभार प्रभु, करो आप कल्याण।।
ईश्वर से संबंध का, मिलता है आधार।
होत जहाँ संस्कार है, अरु विचार सत्कार।।
माया के संसार को, मान लिया आधार।
बिगड़ा जब आचार है, तभी हुआ लाचार।।
नारी कब लाचार है, जान रहे हम आप।
अपने ही आवाज को, दबाकर करते पाप।।
कहने को संस्कार है, नारी है लाचार।
होता अत्याचार है, रुदन करें संसार।।
मात-पिता लाचार तो, करो आप उद्धार।।
मत भूलो संस्कार को, जो जीवन आधार।।
माना जो लाचार हैं, अरु आधार विहीन।
क्यों कहता संसार है, ये संस्कार अधीन।।
मन पंछी का जब करे, तब वो करे विदेह।
जल जाना ही है नियत है, किसे देह से नेह।।
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वाचाल
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माना वो वाचाल हैं, यह उसका संस्कार।
पाता कब सम्मान है, निज खोये आधार।।
निज जीवन निर्माण में, वाचलता है दंश।
आदत से लाचार जो, हो उसका विध्वंस।।
गर्व करो वाचाल हो, रखो स्वयं संभाल।
फर्क नहीं संस्कार से, नहिं होना बेहाल।।
कौन नहीं वाचाल है, क्यों मुझ पर आरोप।
शब्दों का भंडार है, किससे कम यह तोप।।
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सुधीर श्रीवास्तव