दोहे
दोहे —- “जीत” के
झर झर निर्झर झर रहा, अम्बर से है नीर ..
हरी भरी वसुधा कहीं, कहीं विरह की पीर ..
दृश्य मनोरम हो रहा, चढ़ा प्रीत पे रंग ..
कहीं मेघ इतरा रहे, बिजुरी ले के संग..
पुरवाई की तान पे, मनवा गाये गीत ..
मधुर मिलन की आस में, रैन रहे हैं बीत ..
सराबोर हैं नीर से, नदी खेत औ ताल ..
दरस मिले जो आपका, जीवन हो खुशहाल.
——- जितेन्द्र “जीत”