दोहे एकादश….
पर्वत-चोटी लाँघकर, सब वृक्षों को फाँद।
उतरा मेरे आँगना, पूरनमा का चाँद।।१
दुनिया कितनी स्वार्थी, देख रहे हो नाथ !
सिर्फ तुम्हारा साथ है, खींचा सबने हाथ।। २
अपने अपने ना रहे, घर में रहकर गैर।
रिश्ते नाजुक मर रहे, कौन मनाए खैर।। ३
पणगोला सा फूटता, देखो तो उस ओर।
अफरातफरी सी मची, त्राहि-त्राहि का शोर।। ४
उफन रहे नाले सभी, उगल रहे हैं क्षार।
गली-गली में देख लो, गड्ढों की भरमार।। ५
तन को सीधे बेधकर, करती दिल पर वार।
होती हर हथियार से, तेज कलम की धार।। ६
जितनी जिसकी वैधता, उतना उसका मान।
नियत तिथि के साथ ही, मिट जाती पहचान।। ७
आए- आकर रख गए, दुखती रग पर हाथ।
कहकर अपना आपने, भला निभाया साथ।। ८
वृद्धाश्रम सुत ले चला, समझ पिता को भार।
बूढ़ी आँखें ताकतीं, घर को बारंबार।। ९
माँ को बेघर कर गए, खूब मचाकर क्लेश।
घर पुश्तैनी बेचकर, सुत जा बसे विदेश।। १०
उनके घटिया बोल पर, क्यों होते गमगीन।
किस्मत में जो आपकी, सके न कोई छीन।। ११
© सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उ.प्र.)
“मनके मेरे मनके” से