दोहे एकादश …
धंधा करते झूठ का, दावे करते नेक।
सिर्फ एक या दो नहीं, देखे यहाँ अनेक।।१।।
जता कमी कुछ और की, करते ऊँचा घोष।
छिद्रान्वेषी मनुज को, दिखें न अपने दोष।।२।।
ये रुतबा-धन-संपदा, ऊँचे पद की शान।
भौतिक सुख के साज ये, मुझको धूल समान।।३।।
दुनियादारी सीख लो, सरे न इस बिन काम।
दुनिया की रौ में चलो, जो भी हो अंजाम।।४।।
झूठी-सच्ची बात कर, भरे बॉस के कान।
अपना हित जो साधता, पशु से बदतर जान।।५।।
अहंकार के वृक्ष पर, फलें नाश के फूल।
हित यदि अपना चाहते, काटो उसे समूल।।६।।
निंदा रस में लिप्त जो, भरते सबके कान।
खुलती इक दिन पोल जब, क्या रह जाता मान ?।।७।।
आज हमें जो बाँटते, आँसू की सौगात।
कोई उनसे पूछता, क्या उनकी औकात ?।।८।।
पड़ें नज़र के सामने, किस मुँह शोशेबाज़।
झूठी शान बघारते, आए जिन्हें न लाज।।९।।
फर्क न अब मुझपर पड़े, लाख करो बदनाम।
नस सबकी पहचान ली, देखा सबका काम।।१०।।
जब-जब मन भारी हुआ, गही लेखनी हाथ।
मेरी यह चिरसंगिनी, सदा निभाती साथ।।११।।
© डॉ.सीमा अग्रवाल,
जिगर कॉलोनी,
मुरादाबाद ( उ.प्र )