चश्मे-तर जिन्दगी
ग़ज़ल
एक दूजे से है बे-खबर जिंदगी
घूमती फिर रही है नगर जिंदगी
बाँध अपने गले में नई फाँस को
कर रही पंथियों का बसर जिंदगी
रोशनी में नहाई रजत- सी बनी
तेरी बदलेगी कब यह डगर जिंदगी
हैं मुसाफिर यहाँ कुछ दिनों के लिए
ले चलो तुम कभी अपने घर जिंदगी
आदमी चाह को छोड़ता जो नहीं
उसको रखती है चश्मे-तर जिंदगी
दूर से जा रही आओगी हाथ कब
बस तुम्हीं पर लगी है ऩजर जिंदगी
चूम लूँ मैं भी शोहरत का अब आसमां
दे दे कोई तू ऐसा हुनर जिंदगी
डा. सुनीता सिंह ‘सुधा’शोहरत
स्वरचित
वाराणसी