दोहा पंचक. . . ख्वाब
दोहा पंचक. . . ख्वाब
आँखों में आवारगी, ख्वाबों के दस्तूर ।
बोसों के इसरार सब, लब को थे मंजूर ।।
उल्फत के अहसास हैं, आँखों के सब ख्वाब ।
कैसे उसके ख्वाब की, छोड़ें हसीं किताब ।।
उड़ -उड़ के गिरती रही, रुख पर पड़ी नकाब ।
कैसे कोई देखना , छोड़े ऐसा ख्वाब ।।
खड़ी बाम पर ओस में, सजनी देखे राह ।
बिना सजन इस शीत में, रातें हुईं तबाह ।।
नहीं उतरता आँख से, उसका अजब खुमार ।
जाने कैसे हो गया, उल्फत का इकरार ।।
सुशील सरना / 4-1-24