दोहा छंद
जीव-मरण का चक्र है ये, क्यों तू शोक मनाए।
क्षण का ज्यों भान न बंदौ, फिर क्यों टूटा जाए।।
विषम भाव क्यों राखिये, जो विष होत समान।
भेद विषम मिटे जावे, फैले सुखद अमान ।।
वाणी जिसकी रस भरी, जग में पावे मान।
समभाव अपनावे जो, वो होवे अंशुमान।।
अच्छी संगति पावे जब, पूरन होवें काज।
दूर होवें विकार सब, तभी बने अधिराज।।
कर्मों का सब खेल बंदौ, सुख तेरे ही हाथ।
सद्कर्मों से पावै हरि, मिल जाएं आदिनाथ।
डॉ नीरू मोहन “वागीश्वरी”