दोहा एकादश. . . . . सावन
दोहा एकादश. . . . . सावन
सावन में भाता नहीं, अधरों को बैराग ।
जितनी बरसें बारिशें, उतनी भड़के आग ।।
श्वेत वसन से झाँकता, उसका रूप अपार ।
उस पर फिर बारिश करे , बूँदों का शृंगार ।
गोरी बारिश में चली, भीगे सब परिधान ।
गौर वर्ण लगने लगे, गजलों का दीवान ।।
साजन की गुस्ताखियाँ, छेड़े मन के तार ।
सावन लगता शूल सा, तड़पे दिल सौ बार ।।
सजनी सावन में करे, गजरे का शृंगार ।
साजन फिर बौछार में, खूब करें मनुहार ।
गुन -गुन गाएं धड़कनें, सावन में मल्हार ।
पलक झरोखों में दिखे, प्यारी सी मनुहार ।।
सावन में अक्सर करे , दिल मिलने की आस।
हर गर्जन पर मेघ की, यादें करती रास ।।
अन्तस में झंकृत हुए, सुप्त सभी स्वीकार।
तन पर सावन की करे, वृृष्टि मधुर शृंगार ।।
सावन में अच्छे लगें, मौन मधुर स्वीकार ।
मुदित नयन में हो गई, प्रतिबन्धों की हार।।
अन्तर्मन को छू गये, अनुरोधों के ज्वार ।
बारिश की बौछार में, टूटी हर दीवार ।।
सुशील सरना / 17-7-24