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10 Sep 2019 · 1 min read

दोहावली

अब तक समझ सके न हम,मानवता का मर्म।
क्यों न मूकदर्शक बने,सकल जगत औ’ धर्म।१।

मान जहाँ न सु-शील का,खल का हो अधिकार।
संवर्धित होते वहाँ, कदाचार – अपकार।२।

एक विटप फूला – फला,था हर्षित उन्माद।
पता नहीं कब फिर गया,अवसर-प्रहर-मियाद।३।

हम रक्षक जन प्रकृति के ,लिए अचल – संकल्प।
वायवीय ही रह गया, समस्त कृतसंकल्प।४।

तुम चंचल हो कौमुदी,मैं नखत दीप्तिहीन ।
तुम कुमुदिनी-सुमन-सदृश,मैं हूँ मधुप मलीन।५।

©ऋतुपर्ण

Language: Hindi
3 Likes · 1 Comment · 325 Views
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