दोहावली
अब तक समझ सके न हम,मानवता का मर्म।
क्यों न मूकदर्शक बने,सकल जगत औ’ धर्म।१।
मान जहाँ न सु-शील का,खल का हो अधिकार।
संवर्धित होते वहाँ, कदाचार – अपकार।२।
एक विटप फूला – फला,था हर्षित उन्माद।
पता नहीं कब फिर गया,अवसर-प्रहर-मियाद।३।
हम रक्षक जन प्रकृति के ,लिए अचल – संकल्प।
वायवीय ही रह गया, समस्त कृतसंकल्प।४।
तुम चंचल हो कौमुदी,मैं नखत दीप्तिहीन ।
तुम कुमुदिनी-सुमन-सदृश,मैं हूँ मधुप मलीन।५।
©ऋतुपर्ण