‘ दोहरी जिंदगी…एक छलावा ‘
दोहरी ज़िंदगी…ये भी कोई ज़िंदगी है
दोहरी ज़िंदगी… नही कोई बंदगी है ,
दोहरी ज़िंदगी… कैसे कोई जीता है
दोहरी ज़िंदगी…मन का कोना जैसे रीता है ,
दोहरी ज़िंदगी…खुद से अजनबी बनते हैं
दोहरी ज़िंदगी…अपनों को अजनबी कहते हैं ,
दोहरी ज़िंदगी…जैसे साम – दाम – दंड है
दोहरी ज़िंदगी…इसका नही कोई मापदंड है ,
दोहरी ज़िंदगी…बहुतों के जीवन की पिपासा है
दोहरी ज़िंदगी…कितनों की अभिलाषा है ,
दोहरी ज़िंदगी…मन का एक छलावा है
दोहरी ज़िंदगी…आडंबर है दिखावा है ,
दोहरी ज़िंदगी…अपने आप से आँख चुराना है
दोहरी ज़िंदगी…बात – बात पर बहाना है ,
दोहरी ज़िंदगी…क्षण भर का ठहराव है
दोहरी ज़िंदगी…फिर पानी का बहाव है ,
दोहरी ज़िंदगी…मचले तो मृगतृष्णा है
दोहरी ज़िंदगी…नही संभले तो घृणा है ,
दोहरी ज़िंदगी…सबसे बड़ा धोखा है
दोहरी ज़िंदगी…माचिस से भरा खोखा है ,
दोहरी ज़िंदगी…नही चेते तो व्यसन है
दोहरी ज़िंदगी…चेत गये तो प्रवचन है ।
स्वरचित एवं मौलिक
( ममता सिंह देवा , 06/11/2020 )