दोगला पंथी
रुक जाता हूँ चलते चलते, थम जाती हैं सांँसें।
देख दोगला रूप जहां का,मुंद जाती हैं आँखें।।
मखमल-सी कोमल वाणी है,और चमकता तेज।
अंत: कुटिल कटारी रखते,काले-दिल-निस्तेज।।
बहिर्मुखी उमंग लिए फिरते, सच से कोसों दूर।
सच-पर्दा उठते ही ‘मयंक,’ मुरझा जाते नूर।।