देह हूँ मैं
हाँ देह हूँ मैं….
मुझे भी लगती है
भूख औ प्यास…
जली हूँ कभी मैं…
विरह अगन में..
कभी शीतल ब्यार
मुझे डसती है……
बड़ी खूबसूरत मैं हूँ काया…
मुझपे सादगी बड़ी फबती है…
हाँ..देह हूँ मैं…
कभी कंपन कभी स्ंपदन..
.उत्तेजनाओ का…
भाव भिवोर भी होती हूँ मैं..
कभी टूटे सपनों के
जख्म हैं मुझमे उभरते…
कभी खुद ही खुद
सांत्वना बन खिलती हूँ मैं….
हाँ…देह हूँ मैं…
नर्म मुलायम…नाजुक
कठोर….कभी….और कभी
खुद से खुद का नेह हूँ मैं
हाँ इक देह हूँ मैं….
संतृप्ति की आस लिए पिघलती हूँ मैं
निष्ठुर पत्थर भाव लिए
खुद को कभी कभी छलती हूँ मै
हाँ एक देह ही तो हूँ
कभी पावन दैविय मूरत
कभी कलंकिनी कलुषित हूँ मैं।
हाँ एक देह हूँ मै।
निधि भार्गव।