#देसी_ग़ज़ल
#देसी_ग़ज़ल
■वैशाली की नगरवधू ने…।”
【प्रणय प्रभात】
सारे छुटभैये पड़ते हैं लोकतंत्र पे भारी।
जिनकी पीठों पे अंकित हैं
वरद-हस्त सरकारी।।
◆ जिनके पौरुष से चलते हैं
नम्बर दो के धंधे।
उन बंदों के महापुरुष भी
रहते हैं आभारी।।
◆ वैशाली की नगर वधू ने
ख़ुद कर दिया खुलासा।
नहीं दूध का धुला हुआ है
कोई खद्दरधारी।।
◆ पर्दे के पीछे गलबहियां
झूठ-मूठ का दंगल।
साँप-नेवले बीच पनपती
पक्की रिश्तेदारी।।
◆ हम पंचम, षष्टम, सप्तक में गाते रहे कजरिया।
सीख नहीं पाए जीवन भर
राग कोई दरबारी।।
◆ सांपनाथ के सारे तेवर नागनाथ ने हड़पे।
जो बेनागा लांघ रहे हैं, अब सीमाएं सारी।।
◆ सचमुच के अच्छे वाले अच्छे दिन कब आएंगे?
पूछ रहे हैं बच्चे-बूढ़े सोच रहे नर-नारी।।
◆ भीड़-भड़क्का धक्कम-धक्का आए दिन नौटंकी।
राजनीति ने बना दिया है हर सीज़न त्यौहारी।।
◆ धर्म बना डाला है धंधा खोली कई दुकानें।
पाखंडी को वर देकर के क्षुब्ध स्वयं त्रिपुरारी।।
◆ चौके-छक्के लगा रहे हैं देखो चोर-उचक्के।
आम रियाया गेंद लपकने दौड़-दौड़ के हारी।।
◆ गांवों से ले के शहरों तक वही पुराने मंज़र।
द्रुपद-सुताएं क्रंदन करतीं लाज रखो गिरधारी।।
◆ नक़्क़ाली को छूट मिली है मातम फैलाने की।
वही काम अब दवा कर रही जो करती बीमारी।।
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●संपादक/न्यूज़&व्यूज़●
श्योपुर (मध्यप्रदेश)