देश का भविष्य
देश का भविष्य
एक युवा अधेड उम्र शख्श
अपनी पत्नी बच्चों सहित
सडक़ पर था घुम रहा
दशा उसकी थी दयनीय
उस शख्श का यह हुलिया
उसका भेद था बता रहा।
नीचे बांधी थी लूंगी
छाती पर लपेटे था चुनिया
एक कांधा था खाली
दुजे पर शायद
उसका बिस्तर कंबल था।
पैरों में टुटे से लीत्तर
बाल पडे थे तीतर-बीतर
चौड़ा सीना छलकता हुआ।
आँचल से साफ दिखाई देता
शर्मोलाज का पर्दा कभी
ईधर से ऊधर सरक जो जाता।
फि र उसकी पत्नी भी जैसे
जो शायद अधेड उम्र थी
छ: बच्चों सहित वह
ईधर से ऊधर भटक रही थी ।
बच्चे भी बंदरों की भाँति
आगे पिछे घुम रहे थे।
कभी ईधर तो कभी ऊधर
भाग कर कागज चुग रहे थे।
बडे की उम्र शायद ?
पन्द्रह-सोलह साल रही होगी
ओर छोटा इतना छोटा
जिसको दुध पिला रही थी।
बच्चे सारे नंग धडंग
सिवाय कच्छे के कुछ न पहना
सारे बच्चे देश का भविष्य।
आज देश का भविष्य देखो
सडकों पर कागज चुग रहा है।
कहते हैं देखो आज भी
दिन दुनी और रात चौगुनी
देश अच्छी तरक्की कर रहा है।
जब देश का भविष्य ही आज
सडक़ों पर कागज बीन रहा है
तो देश भला फिर क्या ?
खाक तरक्की कर रहा है ।
ऐसी तरक्की से तो बढिया
ना तरक्की ही अच्छी है ।
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