देव-कृपा / कहानीकार : Buddhsharan Hans
दलित साहित्य का प्रथम कहानी संग्रह है ‘देव साक्षी’।
संग्रह 1978 में प्रकाशित हुआ जिसमें कथाकार बुद्धशरण हंस की पाँच कहानियाँ संकलित हैं।
संग्रह की पहली कहानी है
देव-कृपा
^^^^^^^/बुद्धशरण हंस
“साबो” – पहलवान ने पत्नी को टोका।
“हाँ!” – पत्नी ने मुड़कर कहा।
“घर में गेहूं है?”
“हां, है तो।”
“कितना है?”
“जितना है उतना है। क्यों क्या बात है?”
“अच्छा, गुड़ है?”
“हां, गुड़ भी है।”
“और, घी तो बेचने भर जमा हो गया होगा?”
“हो तो गया है। कब से तो कह रही हूं बेच दो। क्यों क्या बात है?”
“और कुछ पैसे-वैसे…?”
हां, कुछ तो है।”
“अरे वाह! कितना है?” – पहलवान खुशी से उछला। “एक चुक्का।” – साबू बोली। “धत्तेरे की! इ भी कोई गिनती है! पैसे को तूने मट्ठा समझ लिया है जो चुक्का से नापती है।” – पहलवान अनपढ़ साबो का उत्तर सुनकर हो-हो करके हंस पड़ा।
“अच्छा चुप भी रहो। मैं पैसों को गिन कर थोड़े ही आई हूँ कि कह दूं दस है कि बीस! पैसों से चुक्का भरा है तो मैंने वही कहा। बड़ा हंसने चला है। अभी एक हिसाब पूछूं, तो सारी अंग्रेजी भूल जाओगे।” – साबो ने खिसिया कर कहा।
“बड़ी हिसाब वाली बनी है, पूछ भी तो! खानगी का पढ़ा हूँ। आजकल का बट्टा और जेबरा (अलजेबरा) भले न पढ़ा हूं। अभी भी मास्टर का रटाया हुआ सारा फुटहरा जीभ पर है।” पहलवान अकड़ा, और हंसता ही रहा।
“पूछूँ?” – साबो को भी ताव चढ़ा।
“अरे हां! हां! बोल तो रहा हूं पूछ!” – पहलवान ने हाथ झटका कर कहा। उसकी खिलखिलाहट बढ़ गई।
“और अगर नहीं बताया तो!” – साबो इठलाई।
“बताऊंगा, बताऊंगा। पूछ भी तो” – पहलवान ने कहा।
“अच्छा बोल। तेरह गंडों में कितना गोइठा? दस गिनते-गिनते बता” – कहकर साबो एक से दस तक जल्दी-जल्दी गिनकर खिलखिलाने लगी।
पहलवान ओंठ और उंगली टपटपाते रह गया। जब गिनते पार नहीं लगा तब खिसिया कर बोला – “ये सब बातें हम क्यों पूछ रहे हैं सो जानी? हंस तो रही है।”
“हां, सचमुच यह तो तुमने बताया ही नहीं। – साबो की हंसी बंद हो गई।
“तुम्हें याद है न?” – पहलवान ने कहा।
“क्या?” – साबो ने जिज्ञासा की।
“बीमार पड़ा था न?” – पहलवान ने कहा।
“हां! हां! बीमार तो पड़ा था, मगर कौन” – साबो ने कहा। “अरे चंदन!” – पहलवान ने झुंझला कर कहा।
“हां पड़ा तो था, मगर बात क्या है?” – साबो की जिज्ञासा तेज हो गई।
“चंदन की भयंकर बीमारी में हमने ठाकुर बाबा को मनाया था, उनकी पूजा गछ ली थी।” – पहलवान ने कहा।
“लो भले याद किया। मैंने भी सतनारायन सामी की मनौती मनाई थी।” – साबो ने कहा।
“अरे, तब तो एक ही बात है। चाहे ठाकुर कहो या सतनारायन। भगवान के लाखों नाम हैं।” – पहलवान ने समझाया, और, आगे पत्नी के मन को टटोला – “तब सिर्फ कौल करने से नहीं होता है।”
“हां सो तो है।” – साबो ने कहा।
“कौल-करार इसी महीना में पूरा कर दें तो क्या हर्ज है?” – पहलवान ने कहा।
“हर्ज़ तो कुछ नहीं है, लेकिन पंडित से पूछ लो।”
“पंडित से भी पूछ लिया है।” – पहलवान ने कहा।
“कब बोला है?” – साबो ने पूछा।
“इसी एकादशी सोमवार को।” – पहलवान ने कहा। “ठीक तो है, तब तक बदन का कॉलेज भी बंद है।” साबो अंदर चली गई।
* * *
जब छोटा लड़का चंदन बीमार पड़ा था, तब जगदेव पहलवान ने बेटे की बीमारी दूर करने के लिए देवताओं की काफी मनौतियां मानी थीं।
जगदेव पहलवान का परिवार छोटा है। घर में गाय-भैंस है। दूध-दही बेचकर परिवार का दाना-पानी जुटाता है। खेत न सही, लेकिन परिवार सुखी है, संपन्न है। नियोजित परिवार, कठिन परिश्रम, संयमित रहन-सहन, सुखी तो रहेगा ही। पहलवान दूध-दही बेचकर अनाज, कपड़ा जुटा लेता है, पत्नी घास-गोइठा बेचकर तेल पानी।
बड़ा बेटा कॉलेज में पढ़ता है। इसी वर्ष कॉलेज गया है। अच्छी श्रेणी से मैट्रिक पास किया है। देखने में सुंदर, बोलने में मधुर, चलने में सीधा और मिलने में हंसमुख है। पहलवान ने इसका नाम रखा था बाढ़ो। बेटे ने एक कदम बढ़ कर अपना नाम बदन कुमार रख लिया। छोटा बेटा दो साल का है – चंदन, हँसता है तो फूल झड़ता है। बदन ने ही इसका नाम रखा है चंदन, नहीं तो पहलवान इसका नाम चेथरू रखने जा रहा था।
जगदेव कद का छोटा है किस्मत का नहीं, देह का मोटा है अक्ल का नहीं। इसलिए लोग उसे पहलवान कहते हैं। नहीं तो गांव के लिए अभी वह ‘जगुआ’ रहता। साबो सुंदर है, चंद्रमुखी है, पहलवान के साथ सुखी है।
* * *
बदन की उम्र 20 की है। छुट्टी में घर आकर मौज मना रहा है। शहर जाकर नई-नई बातें सीख आया है। देहात का गेदा शहर में जाते ही पखेरू हो गया है। सिनेमा के गाने गाता है। गांव की लड़कियों को लैला, बिजली की उपाधियां दे देकर मनचले साथियों का नेतृत्व करता है। हरी पीली लुंगी पहन, बड़ी-बड़ी बाबरी रख, जूतियां चटखा-चटखा कर हीरो बनता है। पहलवान को यह सब बुरा नहीं लगता। वह मन ही मन खुश होता है। जिंदगी भर की कमाई का यही तो एक पौधा लगा है! सारे गांव-गिरोह, भाई-बिरादरी में बदन को लेकर पहलवान का सम्मान बढ़ गया है।
बदन नई रोशनी में जीना सीख गया है। देहाती परंपराओं के प्रति न उसे लगाव है न श्रद्धा। विज्ञान और मनोविज्ञान की शिक्षा ने उसे इंसान बनने और ज्ञान सीखने की शिक्षा दी है। कई बार कॉलेज के सेमिनार में पुराने विचार और नई रोशनी पर व्याख्यान सुन चुका है।
आज मां-बाप को विशेष व्यस्त तथा घर की बेहतरीन सफाई देखकर उसे सहज कोतूहल हुआ।
“पूरे घर को जीभ से चाट-चाट कर साफ कर रही हो, क्या बात है मां?” – चंदन ने पूछा।
“अरे! तुझे अभी तक मालूम ही नहीं है? क्या बाप ने नहीं कहा?” – माँ साश्चर्य बोली। “नहीं तो! क्या बात है?”
“लो! जिसके लिए करे सिंगार, सो ही रोवे जार बेजार!” – माँ एक कवित्त पढ़ गई।
“कहो भी तो, बात क्या है?” – बदन ने पूछा।
“आज घर में ‘सतनारायन सामी’ की पूजा है। तुम्हीं को पूजा पर बैठना है, और बाप ने तुझे बताया नहीं!” – मां बड़बड़ाई।
“अच्छा हुआ जो नहीं बताया।” – बदन ने कहा।
“क्यों रे, क्या हुआ? कुछ खा तो नहीं लिया?” – माँ ने पूछा।
“नहीं, खाया तो नहीं है, लेकिन ये सब करने में हमको अब ऑड लगता है। मां! बाबू से कह दो, वही पूजा पर बैठें, और फिर हमसे दिन भर उपवास करना बर्दाश्त भी नहीं होगा।” – बदन ने कहा।
“क्या बर्दाश्त नहीं होगा भाई, जरा मैं भी सुनूँ।” – बाहर से आते हुए पहलवान ने बदन को टोका। बदन कुछ बोले इसके पूर्व उसकी मां ने प्रेम भरी खिसियाहट में बदन की सारी बात पहलवान को बता दी। साबो की बात सुनकर पहलवान ने निर्णयात्मक ढंग से कहा – “पूजा पर बदन को ही बैठना है, और फिर इसमें उपवास क्या करना है! दूध, शरबत पी सकते हो। 8 बजे पूजा शुरू होगी, 9 बजे समाप्त। भला इसमें क्या उपवास, क्या दिक्कत! सारा इंतजाम हम कर चुके हैं, कुछ और करना है। शाम को पंडित को तुम ही बुला लाना। याद रखो, टीकर पाँड़े को मैंने कहा है।” – कहते हुए पहलवान चलता बना।
साबो बदन को देख कर मुस्कुराई और घर लीपने लगी। बदन जूतियां चटखाता घर में घुस गया।
* * *
“ओ जीsss!”
“अरे, ओ पंडी जीsss!” किवाड़ खुला। हाथ में डिबिया लिए गृहस्वामिनी अंधकार को चीरती दरवाजे पर आई।
“पंडी जी घर पर हैं?” आगंतुक ने प्रश्न किया।
“हैं, अंदर आ जाओ!” – कह कर गृहस्वामिनी घर के अंदर धँस गयी।
आगंतुक भी गृहस्वामिनी के पीछे-पीछे घर के अंदर धँसा।
“मेरे घर में पूजा है। पंडी जी को बुलाने आया हूं।” – घर के अंदर आते-आते आगंतुक ने कहा।
“यहां थोड़ी देर बैठो।” – कह कर गृहस्वामिनी बाहर दरवाजे पर गई और तुरंत लौट आई।
आगंतुक ने घर के सन्नाटे में चारों ओर नजर दौड़ाई। अंधकार में उसकी आंखें फिसल गईं।
“क्या पंडी जी घर पर नहीं हैं” – गृहस्वामिनी के लौटते ही आगंतुक ने जानना चाहा।
“तुरंत आ जाएंगे। तुम्हें बैठने के लिए कह कर गए हैं। बैठो भी तो बदन, तुम तो कभी इधर आते भी नहीं।” – गृहस्वामिनी ने खाट की ओर इशारा कर बदन से कहा।
बदन ने साश्चर्य गृहस्वामिनी को देखा। पुरोहित के घर गरीबों को खाट पर बैठने की इजाजत नहीं रहती, लेकिन पंडितानी तो बोल रही है। बदन को आश्चर्य हुआ। पर वह कुछ बोल न सका।
“क्यों, बैठते क्यों नहीं?” – गृहस्वामिनी बदन के समीप आ गई। उसके ओंठों पर मासूम मुस्कान थी।
“हां, हां, ठीक है। न हो तो हम थोड़ी देर बाद आ जाते हैं अथवा पंडित जी को भेज दीजिएगा।” – बदन ने कहा। “क्यों, खाट पर बैठ नहीं सकते? छुआ जाओगे क्या?” – गृहस्वामिनी मुस्कुराई।
“अरे! आप तो उलटी बात कह रही हैं।” – बदन सकपका गया।
“जब मैं कह रही हूं तब क्यों नहीं बैठते?” – गृहस्वामिनी ने अपनी मासूम आंखें बदन पर टिका दीं।
“ऐसे ही।” – बदन को कुछ कहते पार ना लगा।
“मुझसे डर लगता है क्या?” “नहीं तो”
“मुझसे शर्माते हो?”
“ओह! आप भी क्या कहती हैं!?
“तब मुझसे नाखुश हो?”
बदन चौंक उठा। एक अजीब सिहरन उसके शरीर में फैल गई। उसने विस्मित निगाहों से गृहस्वामिनी को देखा। गृहस्वामिनी अत्यंत अनुराग युक्त नेत्रों से बदन को निहार रही थी। एक लहर बदन के कलेजों को पार कर गई। बदन कुछ बोलने ही वाला था कि गृहस्वामिनी बदन को खाट पर खींच ले गई।
सूनी अंधेरी रात। एकांत घर। दो अपरिचित जवानी का अकस्मात का परिचय। प्रेम का उन्मुक्त वातावरण। दोनों कुछ क्षण तक एक दूसरे को निहारते रहे। मुंह चुप थे, लेकिन आंखों ने बात समझ ली।
“क्या देख रहे हो?” – गृहस्वामिनी मुस्कुराई।
“कुछ भी तो नहीं!” – बदन की निगाहें गृहस्वामिनी पर बिखर गईं।
“तो मुझे नहीं देख रहे हो?” – गृहस्वामिनी ने अपनी व्याकुल निगाहें बदन पर डालीं।
“धत्!” बदन शरमा गया।”
“क्या मैं देखने लायक नहीं हूं? मुझे नहीं देख सकते हो क्या?” – गृहस्वामिनी की सांसें तेज हो गईं। आवाज की कंपन को बदन ने स्पष्ट भाँपा। बदन पसोपेश में था। क्या बोले, उसे समझ में नहीं आ रहा था। वह टुकुर-टुकुर देखता रह गया, कलेजे की लहर को दबाते हुए।
“क्या सोच रहे हो?”
“कुछ भी नहीं।”
“सोच तो रहे हो।”
“नहीं तो, क्या?” – बदन अकचका गया।
“यही कि महाराज अगर आ गए तो इस अवस्था में देखकर क्या कहेंगे! सच बोलो, सोच रहे हो न?” – गृहस्वामिनी का निशाना ठीक बैठा।
इस अवस्था के लिए बदन न तैयार था न उसने कल्पना की थी। गृहस्वामिनी का व्याकुल निमंत्रण बदन की जवानी का चैलेंज हो गया। उसका कुंवारा मन झनझना उठा। प्रेम की व्याकुलता ने उसे बौराहा बना दिया। उसने गृहस्वामिनी को अपनी अनभ्यस्त बाहों में समेट लिया। गृहस्वामिनी निष्प्राण सी बदन की गोद में चितान हो गई।
प्रगाढ़ आलिंगन, अनगिनत चुंबन। सूनी रात, एकांत मिलन। दो प्यासों का व्याकुल संपर्क। निकलता समय, बढ़ती व्याकुलता। दोनों अधिक से अधिक लेने और देने को व्यग्र। सांसें हिलीं, बातें मिलीं। दोनों एक दूसरे में धँस गए। आपस में ऐंठ कर एकाकार हो गए – जैसे दो लताएं आपस में ऐंठ कर एकाकार हो जाती हैं।
एक अथाह सुख के बाद बदन को होश आया। वह चौंक उठा, मानो पाँव पर सर्प पर पड़ गया हो। बदन का संस्कार जागा – महापाप! अभी पूजा पर बैठना है और यह…! गृहस्वामिनी अपार सुख में पड़ी थी। बाल बिखरे, वस्त्र अस्त-व्यस्त। उसके सुचिकन अंगों पर बदन का प्यार फिसल पड़ा! एकबएक वह चौंक उठा, खाट से उतरना चाहा।
“क्यों, क्या बात है?” गृहस्वामिनी ने लेटे ही लेटे बदन को अपनी बाहों में समेट कर, अधर से अधर सटा दिया।
“किवाड़?” – बदन भयभीत स्वर में बोला।
“बंद है” – गृहस्वामिनी मुस्कुराई। उसकी बांहों की पकड़ मजबूत हो गई।
“क्यों मन नहीं भरा?” -गृहस्वामिनी को सहलाते हुए बदन ने पूछा।
“उहूँ!” – गृहस्वामिनी उन्माद से बिखर गई।
“इतनी प्यासी, इतनी भूखी?” – बदन ने गृहस्वामिनी को अपने में समेट कर कहा।
“बहुत प्यासी!” – कहकर गृहस्वामिनी छितरा गई। “क्यों, महाराज से जी नहीं भरता?” – बदन की उत्सुकता जागी।
“महाराज, जी भरें भी तब तो! उन्हें मुझसे अधिक अपने यजमान की चिंता है। उन्हें पूजा चाहिए प्रेम नहीं। उन्हें पत्नी से अधिक प्रतिमा प्यारी है। पत्थर की मूर्तियों पर फूल चढ़ाने वाला जूड़े की महक क्या खाक़ समझेगा! पुरोहित की पत्नी यजमनिका की पोटली खोलने के लिए है, प्रेम की बात बोलने के लिए नहीं!” – गृहस्वामिनी की उंगलियां बदन के बालों में उलझ गईं।
बदन ने निहारा। गृहस्वामिनी के मुखड़े पर अथाह सुख और संतोष के चिन्ह झलक रहे थे। बदन का पुरुषत्व गौरवान्वित हो उठा, जैसे मारे हुए शेर को देखकर शिकारी गौरवान्वित होता है।
गृहस्वामिनी के तने स्तनों का स्पर्श पाकर बदन पुनः बौराहा हो गया। उसने गृहस्वामिनी के गालों पर, बालों पर जहां-तहां चुंबनों की झड़ी लगा दी। छितराई गृहस्वामिनी के गौर पुष्ट अंगों को जी भर कर देखा और दबाया, चूमा और सहलाया। बदन जीवन में जवानी के हाथ पहली बार बिका था। गृहस्वामिनी को उसने बार-बार देखा। देखकर अघाया, छू कर अघाया। बदन का अथाह प्यार पाकर गृहस्वामिनी उन्मत्त हो गई। उसने बेसब्री से बदन को अपने में समेट लिया। लहरें उठीं, गिरीं। फिर उठीं, गिरीं। तब तक उठती गिरती रहीं जब तक किनारा नहीं पा लिया!
अंधेरी रात। एकांत घर। दीपक की शांत लौ। इस सुनसान में दो उन्मत्तों की साँसें सिर्फ सुनी जा सकती थीं। प्यासी जवानी की प्यास मिटी, व्याकुल मन की व्याकुलता मिटी। दोहरे संभोग से गृहस्वामिनी को परम संतोष हुआ। उसके नारीत्व को आज पूर्ण और पवित्र सम्मान प्राप्त हुआ। उसे पूर्ण चैतन्य प्राप्त हुआ। बदन मुरझाया था, शिथिल अचेत। गृहस्वामिनी ने प्रेम से पुचकारते हुए बदन को जगाया – “उठो, उठो, महाराज आ रहे होंगे। लो संभलो, मैं दरवाजा खोलती हूं।”
गृहस्वामिनी ने आहिस्ते किवाड़ का पल्ला सरकाया। संयोगवश, महाराज गुनगुनाते हुए आ रहे थे – “सियाराम मय सब जग जानी।”
“तुम गए तो गए ही रह गए। बेचारा बदन कब से भूखा, प्यासा तुम्हारी आस में बैठा है।” – महाराज के आते ही गृहस्वामिनी की झूठी झुंझलाहट निकल आई।
“पाँव लागूं महाराज!” – श्रद्धानत हो बदन ने कहा।
“जियो यजमान जियो, घी-दूध पियो। चलो, तुम्हारे घर से भी निबट ही लूं।”
महाराज घर के अंदर भी नहीं गए और बदन को साथ ले अंधेरे में सरक गए। चलते-चलते बदन ने पीछे मुड़कर देखा, गृहस्वामिनी के हाथ का दीपक झिलमिला उठा! उसकी निगाहें अंधेरे में भटक गईं!
* * *
पंडित कथा की तैयारी में लग गया। बदन नहा धोकर सिंदूर और चंदन के बने चौके पर आ बैठा। पूजा शुरू हुई। बदन विचारों में खो गया। मंत्र गुनगुनाते हुए पंडित जी ने शंख फूंका। “पूउsss ।” बदन को झटका लगा। आँखें खुलीं। वह संभल कर बैठ गया। “ऊँ नमः सिद्धम! अक्षत यहां डालो।” पंडित ने कलश की ओर संकेत किया।
ऊँघते हुए बदन ने अक्षत को दीपक में डाल दिया।
“अरे रे! इ क्या कर दिया! मैंने अक्षत को कलश में रखने को कहा, तूने दीपक में डाल दिया।”
“जी महाराज!” बदन ने पुनः अक्षत उठाकर कलश में रख दिया।
“ऊँ शिवाय नमः, गरुड़ाय नमः, सीताय नमः, दीपाय नमः। घी डालो” – पुरोहित ने दीपक की ओर संकेत किया। ऊँघते हुए बदन ने घी को कलश में ढरका दिया।
“अरे रे! इ क्या कर रहे हो? घी दीपक में डालने की चीज है कि कलश में?” – पुरोहित चीखा।
“जी महाराज!” – बदन संभला और दीपक में घी ढरकाया। दीपक की लौ तेज हो गई।
“बदन! भगवान के ध्यान में बहुत मगन हो। भला हो यजमान, भला हो।” – ऊँघते हुए बदन को ध्यान मग्न समझ कर पुरोहित ने कहा। “जी महाराज!” – बदन चौका। वह संभल गया। पूजा आगे बढ़ी। शंख बजा और पुरोहित के अभ्यस्त मुख से संस्कृत के रटे-पिटे शुद्ध-अशुद्ध शब्द-छंद गूँजने लगे – ऊँ गरुड़ाय नमः, लक्ष्मै नमः, शिवाय नमः, विल्व आम्र पत्राय नमः, प्रजापाताय नमः, ऊँ श्री गणेशाय नमः …। बीच-बीच में शंख ध्वनि “पूउsss ।”
बदन स्मृतियों के संसार में खोया था – आत्मविभोर, आत्मविस्मृत! दीपक की लौ में उसे गृहस्वामिनी की आंखों का आभास हुआ, धूप अगरबत्ती की सुगंध में उसके कजरारे बालों की सुगंध का। पुरोहित के आगे छितराए पतरा को देखकर उसे लगा गृहस्वामिनी उसकी गोद में बिखर गई है। उसे स्मरण हो आया, गृहस्वामिनी का प्रगाढ़ आलिंगन, बेहिसाब चुंबन। ताजे स्मरण ने उसके कलेजे को वेध दिया। वह विचलित हो रहा था, तभी पुरोहित का शंख उसके कानों में गूँजा “पूउsss ।”
वह होश में आया, संभला। मन का चोर सतर्क हो गया – कहीं कोई भाँप न जाए! उसने पुरोहित से बिना पूछे मुट्ठी भर धूप उठाकर अग्निकुंड में डाल दिया। ढेरों धुआं हुआ जिसमें बदन ढक सा गया। उसे परम संतोष हुआ।
कथा समाप्त हो गई। मात्र संकल्प लेना शेष रह गया। कथा कह कर पुरोहित निश्चिंत हुआ। पहलवान प्रसाद वितरण के लिए तत्पर। पुरोहित ने बदन को संकल्प कराया और मुंहमांगी दक्षिणा पाई। पुरोहित अत्यंत प्रसन्न था। उसने गदगद होकर बदन को आशीर्वचनों की झड़ी लगा दी –
“बदन तुझे सुख मिलेगा।”
“जी महाराज!”
“सम्मान मिलेगा।”
“जी महाराज!”
“धन मिलेगा।”
“जी महाराज!”
“धरती मिलेगी।”
“जी महाराज!”
“बल मिलेगा।”
“जी महाराज!”
“बुद्धि मिलेगी।”
“जी महाराज!”
“यश मिलेगा।”
“जी महाराज!”
“कीर्ति मिलेगी।”
“जी महाराज!”
“तुझे मोक्ष मिलेगा, तुम पुण्यवान हो।”
– पुरोहित ने अपना अभय हस्त ऊपर उठाया।
“सच महाराज!” – बदन ने साश्चर्य पूछा।
“अवश्य यजमान, अवश्य। सत्यनारायण व्रत कथा को सुनने मात्र से जीवन के सारे पाप कट जाते हैं। देव-कृपा से स्वर्ग के राज्य और मोक्ष की प्राप्ति होती है।” – पुरोहित ने साभिमान कहा।
“हां महाराज! मुझे विश्वास है, अवश्य मिलता होगा! देव-कृपा से मुझे आज ही, अभी ही, स्वर्ग और मोक्ष एक साथ मिले हैं!”