देर मी ही अंधेर
सब कहते है तेरे दरबार में होती है देर,
लेकिन कभी होती नहीं अंधेर.
लेकिन भगवान तू करता ही क्यू है इतने देर.
क्या तेरी इस देर मे ही छुपी नही है अंधेर.
क्या तू नही चाहता के अपनाये कोई सच का रास्ता.
या तेरी ही चाहत है कि कोई ना रखे इससे वास्ता.
सच को तो तूने बनाया है दुधारी तलवार.
और झूट की तो हमेशा होती है जय जय कार.
सच्चाई को तो तपाया जाता है भट्टी मे हजार बार.
और झूट के लिए तुने समझी नही इसकी दरकार.
सच्चाई के पुजारी तो हमेशाही होते आये है बेहाल.
और झूट अपना कर हमेशा लोग होते आये है मालामाल.
सच को हमने हमेशाही होते देखा है पराजीत.
और झूट की हमने हमेशा होती देखी आहे जीत ही जीत.
देख कर ये हाल भगवान हो रहा है सुना सच का रास्ता.
हर कोई रखना चाहता है केवल झूट से ही वास्ता.
इसलिये भगवान मत किया कर इतनी देर.
वर्णा मच जायेंगी चौतरफा अंधेर ही अंधेर.
. कविता दुसरी
. मेहेरबा
ऐ मेरे मेहरबानो शुक्रिया तुम्हारा.
जो तुमने रखा इतना खयाल हमारा.
तुम अगर उजागर ना करते हमारी कमजरी.
तो शायद बढते ही जाती हमारी मगरूरी.
तुमने घावो से किया हमारा सीना छलनी.
तभी तो हो पायी हमरे गंदे खून की छननी
तुमने दिखाया बेरहम बनकर कौर्य.
तभी तो हममे जागा असिमीत धैर्य.
तुम्ही तो हो मेरे संगतराश जिन्होने बडी बेहरमी से हमे तराशा.
इसीलिए तो बच गये हम दुनिया मे बनने से तमाशा.
तुमने कभी की नही हमारे घावो की परवाह.
इसलिये तो बन पाये हम दर्द से बेपरवाह.
तुम्ही ने की चुन चुन कर उजागर हमारी खामिया.
तभी तो कर पाये हम दूर अपनी कमिया.
तुम्ही ने बिछाये रास्ते मे काटे हमारे बार बार.
इसीलिए तो सिख पाये हम ना हो ना बेजार.
तुम्ही ने किये आफ़तो से रास्ते हमारे बंद.
इसीलिए तो कर पाये हम खुद को चाक ओ चौबंद.
तुम ना होते तो ना बन पाते जो हम है आज.
इसलिये तहे दिल से शुक्रिया ओ मेरे हमराज
. कविता 3
अकल की दुकान
उन्होने सोचा एक दिन की वो तो है अकल की खदान.
फिर क्यू ना खोली जाये अकल की एक दुकान.
बात उनके भेजे में ऐसे ये समायी.
के ठाणली उन्होने करेंगे इससे ही कमाई.
अनुभव का अपना ये बेचकर भंडार.
खोलेंगे हम अपनी किस्मत का द्वार.
बेच कर अपनी अकल हम होंगे मालामाल.
लोग भी हमारी अकल लेकर होंगे खुशहाल.
सोच सोच कर उन्होने अपनी अक्कल को खंगाला.
इसमेही निकलने लगा उनकी अकाल का दिवाला.
फिर सोच पर लगाया उन्होने अपनी लगाम.
और खोल ही ली अकल की एक दुकान.
उस पर लगाया उन्होने एक बडासा फलक.
लिखा उन्होने उसपर यहा मिलेंगी अकल माफक .
बहुत दिनो तक दुकानपर वे मारते रहे झक.
लेकिन दुकान पर कोई भी फटका नाही ग्राहक.
दुकान पर होते रहे वे बहुत ही बेजार.
लेकिन फिर भी वहा कोई आया नही खरीदार.
कहा हुई है गलती वो कुछ भी समझ ना पाये.
फिर भी ग्राहक की आस मे कुछ दिन और लगाये.
गलती की खोज में उन्होने अकल अपनी दौडाई.
तब कही जाकर बात उनके भेजे मे समायी.
कोई नही चाहता अनुभव बना बनाया.
हर किसी को चाहिये अनुभव अपना अपनाया.
इस तरह से हुआ उनके अकल में एक इजाफा.
और दुकान का उन्होने कीया अपनी तामझाम सफा.
. कविता 4
मुगालता
लगने लगा है अब मुझे की तुझे हो गया है मुगालता.
इसलिये तुने मुझे पर लगा रखा है आफतो का ताता.
इन आफतो से मै अब हो गया हू बेजार.
लेकिन आफते है कि आ रही है लगातार.
अब तक तो यही समझ थी के तू ले रहा है मेरा इम्तिहान..
लेकिन अब लग रहा है मुझे की तू कर रहा है मुझे परेशान.
समज रहा था की तू आजमा रहा है मेरा धैर्य.
लेकिन लग रहा है अब की तू दिखा रहा है कौर्य.
मेरी समझ थी के मै बन रहा हू सुघड हातो मे नगीना.
लेकिन भगवंत तुने तो बना लिया है मुझे अपना खिलोना.
सच की राह पर चल कर मै समझ रहा था खुद को खुशनशीब
लेकिन लग रहा है अब की मुझसा कोई है नही बदनसिब.
मेरी समझ थी तू चट्टान को रहा है तराश.
लेकिन तू तो कर रहा है मुझपर सिर्फ खराश ही खराश..
हर आफत कबूल की समज कर तेरी मर्जी.
लेकिन अब और मत कर परेशा कबूल करले मेरी अर्जी.
अब तू इन आफतो से मत कर मुझे और बेजार.
वर्णा तेरी ये कृती बन जाएगी हमेशा के लिए मजार.
मत ले भगवन तू मेरी इतनी कठीण परीक्षा.
वरना अब हो जायेगी मुझसे तेरी ही उपेक्षा.
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