देख रही हूं
सूरज को ढह कर नदी में गिरते देख रही हूं
मैं क्षितिज पर दिन को सांझ में ढलते देख रही हूं।
बूढ़े बाबा के साथ में मुनिया, मुनियां के हाथ में काकी का हाथ
सब को जीवन के दुख धनियां पे बाते करते देख रही हूं।
मुनियां को उछलते कूदते घर जाते देख रही हूं
जुम्मन, जुगता, कुदका को खेत की मेड़ पकड़
तेज कदमों के थापों पे गाते हुए जाते देख रही हूं।
गाय, भैंस, छागड, बकरी को गोधूलि बेला में
एक सांस एक कतार में रंभाते हुए जाते देख रही हूं।
संग संग हंसों को नदी के ऊपर तिरते देख रही हूं
सब को अपनी चुप आंखों में घर करते देख रही हूं !
~ सिद्धार्थ