देखो दीवाली फिर से
ये कविता हमारे आराध्य पिता जी को समर्पित है:-
लावड़ी छन्द पर आधारित:- ??
देखो दिवाली फिर से कुछ, यादें लाने वाली है।
पर तेरी यादों से पापा, लगती खाली-खाली है।।
याद आता है पापा मुझ को साथ में दीप जलाना।
कैसे भूलूँ पापा मैं वो, फुलझड़ियां साथ छुटाना।।
दीपावली में पापा आप, पटाखे खूब लाते थे।
सबको देते बांट पिता जी, हम सब खूब दगाते थे।।
तेरे बिन पापा घर में सब, दीवाली तो मनाते हैं।
साथ बिताये जो पल तुमसे, याद बहुत अब आते हैं।।
गौरी गणेश का पूजन कर, पापा तिलक लगाते थे।
रक्षा सूत्र बांधते हाथ में, फिर हम दीप जलाते थे।।
आज भी माँ ने मीठा व पकवान भी सब बनाया है।
सब कुछ तो वैसा है पापा, आप कमी का साया है।।
माँ के चेहरे पर भी देख, छायी आज उदासी है।
रोती है वो छुपके-छुपके, सबसे सदा छुपाती है।।
देख उदासी अम्मा की वो, दीदी भी रो जाती है।
घर में देख उदास सभी को, सब रंगत खो जाती है।।
हम सब के चेहरों पर देख, छायी आज उदासी है।
समझाए कौन यहां अब तो, सबकी आंख रुलासी है।।
ऐसे हर त्योहारों में गम की छा जाए ख़ुमारी है।
बड़े भाई के कंधों पर, सारी जिम्मेदारी है।।
मिलकर के सब भैया ने ही, घर का भार संभाला है।
अवशोष मुझे इतना है” नहीं खुशी देखने वाला है।।
हम सब मिलकर वन्दन करते, और नित शीश झुकाते हैं।
कार्य कोई करने से पहले, आशीष आपका पाते हैं।।
स्वरचित:-
-अभिनव मिश्र✍️✍️
-शाहजहांपुर, उत्तर प्रदेश