देखिये न !
देखिये न !
०
दरारें दिख रहीं हैं आज दरिया के किनारों में ।
घुली है पीर सी चहुँ ओर बिखरी इन बहारों में ।।१
०
जरा भी मन नहीं होता सुबह अखबार पढ़ने को ।
पढ़ूँ तो एक झंझावात सा उठता विचारों में ।।२
०
बचें उससे दिखाई दे कहीं तो सामने कातिल।
न जाने कब कहाँ चुप वार कर जाये इशारों में ।।३
०
व्यवस्था सामने इसके हुईं सारी धराशायी ।
गुजर कर भी लगे हैं लोग देखो तो कतारों में ।।४
०
कुल्हाड़ी पाँव पर खुद मार अपने रो रहे हैं हम ।
नहीं सूरज मिलेगा टिमटिमाते इन सितारों में ।।५
०
नमस्ते दूर की अच्छी सिखाया रोग ने हमको ।
मिलेगी तुष्टि केवल नेह की नन्हीं फुहारों में ।।६
०
कलम तुझको कसम है सत्य केवल सत्य ही लिखना ।
सचाई है नहीँँ इन खोखले से व्यर्थ नारों में ।।७
०००
महेश जैन ‘ज्योति’,
मथुरा ।
***