देखा है कभी तुमने किसी टूटे हुए बााँध को?
देखा है कभी तुमने
किसी टूटे हुए बााँध को?
जाने कैसे टूटा होगा
कितना सब कुछ छूटा होगा,
ये मंज़र कितना हरा रहता था
जब तलक वो भरा रहता था..
फिर इक रोज़
सब कुछ बह गया
कुछ नहीं रह गया।
सब लोग चले गए यहाँ से
जो रोज़ इससे मिलने आते थे।
कई सालों से
यहीं खड़ा था,
हर मौसम से
बाखूबी लड़ा था,
कमज़ोर तो नहीं था वो
ये भी मुमकिन नहीं कि
किसी रात की
बारिश से हार हुई होगी,
ज़रूर हौले हौले कोई
गहरी दरार हुई होगी,
अब कितना खामोश खड़ा है
सर झुकाये
थका हुआ सा।
कभी कभी टूट जाते हैं
बााँध जैसे कुछ लोग भी।
देखा है कभी तुमने
किसी टूटे हुए बााँध को ?
(स्वरचित)
आलोक पांडेय