**देखा देखा जग का मेला**
देखा देखा जग का मेला लगता कितना है अलबेला।
अपने अपने पथ के राही हम सब,
दौड़ रहा जीवन का रेला।।
कोई गुरु और कोई है चेला यह जग है बड़ा रंगीला।
कोई मस्ती में झूम रहा है, कोई गमों संघ घूम रहा है।
तलाश रहा हर कोई मंजिल,
पथिक कर्म को ढूंढ रहा है
जीता वही जो जमकर खेला।
देखा देखा जग का मेला, लगता कितना है अलबेला।
अनुनय यह जीवन इक दरिया सबको इससे पर उतरना।
जब तक चले स्वांस की डोरी कुछ न कुछ है करते रहना।
निर्झर बहना जब तक रहना महकेगी बगिया जैसे
फूल यथा च्ंपा चमेली और बेला ।
देखा देखा जग का मेला लगता है कितना अलबेला।।
राजेश व्यास अनुनय