दृग बाण से उर भेद कर
गीतिका
दृग बाण से उर भेद कर पलकें झुका कर चल दिये।
फिर से हृदय में प्रेम का इक ज्वार ला कर चल दिये।
मधुमास करता प्रेम का है अंकुरण किसने कहा!
वह ही स्वयं मधुमास का जलवा दिखा कर चल दिये।
मदमत्त करने के लिए क्यों हो सहारा वारुणी।
उन्मत्त करने नैन की मदिरा पिला कर चल दिये।
पुष्प दे मधुराग भँवरा पी प्रफुल्लित हो रहा।
हो प्रेम में ऐसा समन्वय ये बता कर चल दिये।
बढती उषा को चूमने यों इष्टियों में अग्नियाँ।
मुख उर्मियों से प्रेम-पावक उर बढा कर चल दिये।
संतप्त उर को रति सुधा की एक धारा ही बहुत।
वो स्पर्श से ‘इषुप्रिय’ सहस्त्रों ही बहा कर चल दिये।
अंकित शर्मा ‘इषुप्रिय’
रामपुर कलाँ,सबलगढ(म.प्र.)