दूर कहीं उड़ जा रे पँछी
दूर कहीं उड़ जा रे पँछी
अंधड़ है उतरा आया।
आस के नन्हे पत्तों को चुन
तूने नीड़ बनाया था
गुंथे गुंथे तृण तारों से
अद्भुत प्राचीर बनाया था
दीप नेह के गहन निशा में
पँछी तू रोज जलाता था
रोते दिल के साथ खड़ा हो
कितना नीर बहाता था।
पर उस परम् विधाता को
तेरा यह करम नहीं भाया
दूर कहीं उड़ जा रे पँछी
अंधड़ है उतरा आया।
इधर उधर से उछल उछल कर
दाना चुन चुन लाता था
अपने मात हीन बच्चों को
चोंच से अन्न चखाता था
पितु मात का अद्भुत संगम
तुझ ही से बन पाया था
जाने इतना ज्ञान कहां से
पँछी तू ले आया था।
पर ऐसे ज्ञानी सज्जन पर
दैव भी पिघल नहीं पाया
दूर कहीं उड़ जा रे पँछी
अंधड़ है उतरा आया।
कड़क दुपहरी में जब राही
थका थका सा आता था
उसको तू गा गा कर प्यारे
मीठे गीत सुनाता था
मैं भी देखा करता तुझको
रत जन जन की सेवा में
तेरे अनुपम चाल चलन पर
मेरा मन भर आता था।
पर हाय उस निर्मोही को
क्या यह सब रास नहीं आया
दूर कहीं उड़ जा रे पँछी
अंधड़ है उतरा आया ।
तौल स्वयम को दो पंखों पर
उड़ जा खग जन प्यारे तू
छोड़ दे अपना रैन बसेरा
भूल जा लोग बेचारे तू
नहीं पड़ेगी तेरी कीमत
स्वर्ग लोक में भी नभचर
नहीं चाह में प्रेम की फिरना
दर दर मारे मारे तू।
इस सांसारिक कर्म क्षेत्र का
भेद किसी ने भी न पाया
दूर कहीं उड़ जा रे पँछी
अंधड़ है उतर आया।
विपिन