दुर्योधन की पीड़ा
युग के किस काल खण्ड में किस व्योम तले
किन किन गोदों में बचपन से मैं पला बढ़ा
और विधाता ने किस घड़ी किन हाथों से
भाग्य की लकीरों में मेरे केवल बला गढ़ा
अब जी भर कोस रहा हूँ उस क्षण को मैं
जब एक पापी इस पावन धरा पर आया
और महाराज धृतराष्ट्र का बड़ा पुत्र बन
राज हस्तिनापुर का युवराज कहलाया
एक सम्मानित राजकुल में जन्म लेकर भी
किस तरह इतना गलत संस्कार था पाया
कितनी बार ठोकरें खाने के बाद भी
मेरे मन में हमेशा अहंकार रहा था छाया
बचपन से पुत्रमोह के कारण ही क्याें नहीं
सिर पर सदैव रहा माता पिता का साया
पर रणक्षेत्र में जीवन के इस अन्तिम क्षण
असहनीय पीड़ा से अब कराह रही है काया
पता नहीं क्यों बचपन काल से ही मैं एक
अजीब तरह के पूर्वाग्रह से ग्रसित रहा था
मेरी कुटिल साेच और दुर्बुद्धि के कारण ही
सभी पाण्डवों ने क्या क्या दु:ख नहीं सहा था
क्या गलत माॅंग किया था भाई पाण्डवों ने
राज का आधा भाग ही केवल रहा था माॅंग
पर शायद मेरी मति ही तभी गई थी मारी
उन्हें कुछ भी देने पर बात को रहा था टांग
भ्रमवश मेरे पैर फिसल जाने पर द्राेपदी ने
मुझे अंधे का पुत्र भी अंधा ही ताे बाेली थी
इसकी प्रतिक्रिया में ताे मेरे कुकृत्यों से
बाद में हस्तिनापुर की गद्दी भी डोली थी
नयनाें के रहते भी मैं विवेकहीन बना अंधा
अनुज दुशासन के हाथों पाप भीषण करवाया
हस्तिनापुर की याेद्धा से भरी राजसभा में
अबला द्राेपदी का चीरहरण करवाया
मामा शकुनि ने हमेशा गलत शिक्षा देकर
राज सिंहासन की महत्वाकांक्षा काे बढाया
पाण्डवों के विरूद्ध कपट चाल चल कर
मुझ पापी को पाप के शिखर पर चढ़ाया
द्युतक्रीड़ा और लक्षागृह की घटना से
जब मेरा मन पूरी तरह नहीं भर पाया
तब पाण्डवों को अज्ञातवाश के जाल में
अपनी कपटी चाल चल कर फंसाया
आश्चर्य है कि पाण्डव इतने वीर होकर भी
मेरे अत्याचार को माैन हाेकर सह रहा था
इस कारण मैं अपने को बलशाली मान
निरंकुश हाेकर अपने मन की कर रहा था
श्री कृष्ण का केवल पाॅंच गाॅंव का प्रस्ताव
ऩिश्चित ही उस दिन कितनी शुभ घड़ी थी
पर इस पागल दुर्योधन को सूई की नोक के
बराबर भूमि उनकाे देने में चुभ पड़ी थी
क्या विशाल महाभारत युद्ध में सचमुच
हमारी सेना असत्य स्तंभ बन थी खड़ी
इसलिये उतने वीर योद्धाओं के रहते भी
मुझे हर दिन अपनी जीत की थी पड़ी
मेरे सब पाण्डव भाईयों ने हमेशा से ही
मुझे अपने सगे भाईयों की तरह माना
पर मैं अधर्मी अज्ञानी पापी कुकर्मी ही
उन लाेगाें काे देता रहा था बराबर ताना
श्री कृष्ण की बात अगर उस दिन मैं
सह्रदय सहर्ष मन से मान लिया हाेता
हस्तिनापुर राज्य के इस विनाश का दाेष
क्याें आज अपने कंधाें पर लिया ढ़ोता
रही सही जाे कुछ भी कमी रह गई थी
उसे मेरे मित्र अश्वत्थामा ने दिया था पाट
मुझ नराधम काे खुश करने की खातिर मेरे
पाण्डव पुत्रों के सिर को उसने दिया था काट
मेरे कुकर्माें के संग आज इस कुरूक्षेत्र में
मेरा दुर्भाग्य भी सदा के लिये ही साे गया
हस्तिनापुर का वह विशाल साम्राज्य अब
अंधकार के आगाेश में जैसे कहीं खाे गया
कभी जीत का सपना पालने वाले का मन
रण क्षेत्र में असहनीय पीड़ा से भटक रहा
अपने कुकर्माें के फल की मुझे अनुभूति हाे
मेरे प्राण बाहर निकलने से अटक रहा
काश वासुदेव से मैं नारायणी सेना न माॅंग
स्वयं अकेले नारायण को ही माॅंगा होता
और अर्जून के लिए आरक्षित उस वाण को
मित्र कर्ण घटोत्कक्ष पर अगर नहीं दागा होता
और मैं मूढ़ वासुदेव के झांसे में न आकर
निर्वस्त्र ही अपनी माॅं के समक्ष चला जाता
युद्ध भूमि में जीवन के अन्तिम काल में
पत्थर बन गये शरीर में पीड़ा तो नहीं पाता
पर एक बात अवश्य जाे अन्दर अन्दर ही
हमेशा से ही मुझे पूरी तरह खटकती रही
क्यों वीर योद्धाओं के होते जीत की खातिर
मेरी सेना प्रारंभ से अन्त तक भटकती रही
काेई व्यक्ति भविष्य में अपने पुत्र का नाम
मेरे नाम पर रखे जाने पर ही काँप जाएगा
और मेरा नाम तो स्मृति में आने पर ही वह
अपनी भूल को एक बार में भाॅंप पाएगा