दुर्मिल सवैया
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( दुर्मिल सवैया )
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वसुदेव चले हरि को सिर ले कर प्रस्तर सा अपने मन को ।
यमुना उफनी घन घोर घिरे तब शेष चले ढक के फन को ।।
बिजली कड़के तड़के नभ में यमुना निरखे प्रभु के तन को ।
तज क्षीर हरी मथुरा प्रगटे सुर देख रहे मनमोहन को ।।
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कस फेंट लई नँदलाल चले सँग ग्वाल सखा हरषे मन में ।
वृषभानु लली सँग में सखियाँ मिल घेर लईं सिगरी वन मेंं ।।
सरसाय रही उर ब्यार हिया लख प्रेम भरे मृदु नैनन में।
टकराय गये दृग से दृग दो फँस नैन गये हरि लोचन में ।।
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महेश जैन ‘ज्योति’,
मथुरा !
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