दुर्मिल सवैया
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दुर्मिल सवैया
(8 सगण )
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विनती इतनी मम मात सुनो जग में अब पाप बढ़ा अति है ।
मन में बस काम गया चुपके अँखियाँ छिप बैठ गयी रति है ।।
नर भूल गये महिमा अपनी अब एक नहीं मिलता यति है ।
तुम अंश यहाँ अति पीड़ित हैं जन की सबकी बिगड़ी मति है ।।
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अब फाड़ दिये मन चीर दिये सब द्वंद करें भिड़ते-लड़ते ।
बिसरा मन से सब प्रेम दिया नर वानर से चिढ़ते -अड़ते ।।
मन में बस स्वार्थ बसा सबके जर के वश में गिरते -पड़ते ।
अपनी पत बाँध रखी तिखने पर नारिन को फिरते तड़ते ।।
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महेश जैन ‘ज्योति’,
मथुरा ।
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