दुपहरी
आँगन में आ गई दुपहरी
हवा भी हुई अब सुई सी
पेड़ के पत्ते भी सूख रहे
चकमक चकमक धूप रूई सी।
अलसाये पत्ते डोल रहे
भेद मौसम का खोल रहे
ठंडी हवा कूलर बन बैठी
पक्षी भी ये बोल रहे।
हाड़ तोड़ गर्मी है पड़ती
कमरतोड़ काम को लादे
जब आती रोटी की यादे
भूख पेट अँतड़ी मचलती।
शरीर भी तप सा गया
मजदूर थक सा गया
भविष्य के सपने सजोये
जन-गण-मन हो गया।
ईश्वर भी सब देख रहा
प्रकृती से खिलवाड़
इंसा खूब कर रहा
मौसम भेष बदल रहा
जान लेवा हुई दुपहरी।
अंतः मन को खोल लो
ध्यान लगा कर सोच लो
पेड़-पौधे खूब लगाना है
आने वाली दुपहरी से
पृथ्वी को अब बचाना है।