दुपहरी
अनल अम्बर झरता ज्येष्ठ की दुपहरी
उष्ण वातावरण तप्त तवा सी धरणी
व्याकुल पखेरू पशु जन लू समीरणी
पाषाण खंडों को तरासती बैठ दुपहरी।
चिलचिलाती धूप में बहती उर नालिका
टप-टप स्वेदबूंद कपोलों से चूमती वसुधा
बार – बार चोट करती आकार लेती मुरती
स्वेत रमणी लिपटी स्याम पट विसारती दुपहरी।
रजत काया दाह वश स्याम वर्णी बन पड़ी
अतृप्त तृष्णा तैरती अवनालिका अधरों पर
एक टक निहारती शून पड़े कमंडलो पर
अदृश्य ओझल कोई दिखता नहीं दुपहरी।
चल पड़ी नग्न – पाद तप्त पाषाण पर
भूल गई पीर को नीर की आस पर
पावों में पड़ गयी कोपलों सी लाली
क्षुब्ध -क्षुधा शांत नदी नीर स्वर्णिम दुपहरी।
फिर एक बार जुटी कर्म को तरासती
काटती तरासती पाहन मूरत को सवारती
सवार नहीं पाती ना लिखे भाग को मिटाती
रैन चैन दिन दैन बीत रही ज्येष्ठ की दुपहरी।
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“””””””””””””””””सत्येन्द्र बिहारी””””””””””””””””