दुनिया
देखती हैं सुनती हैं तरस खाती हैं दुनिया!
ये न समझना की काम आती हैं दुनिया!
ये सोच के खुद मैंने फूॅंक डाला घर अपना!
बरकत को मेरी देख के जल जाती हैं दुनिया!
इक उम्र हुई मुझको भटकते हुए दर-ब-दर!
देखते हैं और कितना भटकाती हैं दुनिया!
दुनिया से क्या करें दुनिया की शिकायत!
दुनिया को कहाँ सज़ा दे पाती हैं दुनिया!
किसी रोज पलट के तू इसे जड़ दे तमाचा!
मुर्दो का कफ़न भी तो बेच खाती हैं दुनिया!
पहले तो छीन लेती हैं वो सब से निवाला!
फिर रहने के भूखे फ़ायदे समझाती हैं दुनिया!
✒ Anoop S.
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