दुनियादारी तुम्हारे क्या कहने
दुनियादारी तुम्हारे क्या कहने
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दुनियादारी तुम्हारा क्या कहना
तन को चुभने लगा पाया गहना
देखो कितना बदल गया जमाना
मुमकिन नहीं परस्पर साथ रहना
हर बार देखते निज का फायदा
स्वार्थों की हद का है क्या कहना
बुद्धि की उपलब्धि नजर न आए
बुद्धिहीन की टोली का बहे झरना
नजाकत झुकने से कयामत बढ़ी
रंजिश की दीवारों का क्या कहना
पर निलय आग लगे हंसते हैं सब
निज घर आग लगे तो क्या कहने
खाली उपासना में कुछ नहीं धरा
मनसीरत कर्मयोगी के क्या कहने
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सुखविंद्र सिंह मनसीरत
खेड़ी राओ वाली (कैथल)