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11 Dec 2016 · 1 min read

दुनियाँ भर की खाक़ हम छानते रहे

दुनियाँ भर की खाक़ हम छानते रहे
ज़िंदगी में ज़िंदगी से भागते रहे

कुछ राबता तो है उस शहर से मेरा
पलके बिछाए रास्ते मुझे ताक़ते रहे

ना ज़मीन को पाया ना आसमाँ देखा
जाने किस किस का कहा मानते रहे

इसीलिए आँखोंमें अश्क दामन में खाक़ है
हम दिल के ज़रूरी काम सारे टालते रहे

आते भला कैसे भीगी-सी आँखों में अपनी
ख्वाब टूटने के शोर से हम जागते रहे

शामिल ही कब थे चूहे भी दौड़ में
बिल्लियों को देखकर वो भागते रहे

दर्द ने सीने में उठकर बिठा दिया ‘सरु’
बोझ जमाने का जो दिल पर डालते रहे

1 Comment · 369 Views
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