दुनियाँ भर की खाक़ हम छानते रहे
दुनियाँ भर की खाक़ हम छानते रहे
ज़िंदगी में ज़िंदगी से भागते रहे
कुछ राबता तो है उस शहर से मेरा
पलके बिछाए रास्ते मुझे ताक़ते रहे
ना ज़मीन को पाया ना आसमाँ देखा
जाने किस किस का कहा मानते रहे
इसीलिए आँखोंमें अश्क दामन में खाक़ है
हम दिल के ज़रूरी काम सारे टालते रहे
आते भला कैसे भीगी-सी आँखों में अपनी
ख्वाब टूटने के शोर से हम जागते रहे
शामिल ही कब थे चूहे भी दौड़ में
बिल्लियों को देखकर वो भागते रहे
दर्द ने सीने में उठकर बिठा दिया ‘सरु’
बोझ जमाने का जो दिल पर डालते रहे