दुखी मन मेरे
दुखी मन मेरे
यह कहानी उन मानसिक रोगियों को सर्मपित है। जिन्होने अपनी जिन्दगी में खुषी का कोई क्षण अनुभव नही किया है। यह अजीब विडम्बना है कि जीवन में हर समय खुषी एव ंगम के पल आते जाते रहते है। परन्तु इन रोगियों का जीवन हमेषा-हमेषा के लिय गम एवं समस्याओं से भरा रहता है। सामाजिक तिरस्कार, उपेक्षा एवं मानसिक पीड़ा इन रोगियों का जीवन जीना दूभर कर देतें है । आषंकाओं से ग्रस्त रोगी खूबसूरत पलों को न महसूस कर पाता है न ही जी भर के जी पाता है। मानसिक रोग दीमक की भंांित वृक्ष रूपी जीवन को आजीवन खोखला करता रहता है । फल फूल से सुषोभित जीवन की सुन्दरता मात्र वाह्य आवरण ही साबित होती है। आन्तरिक सुन्दरता, आन्तरिक खोखलापन ही साबित होता है।
जीवन के मूल उदेद्ष्य सुख पाने की चाह से दूर यह मनुष्य अपने मूल उदेद्ष्य से भटके, गुमराह, गली के हर मोड,़ चैराहे या घर-घर में मिल जायेंगंे। जो अपने जीवन को न केवल भार समझते है बल्कि, नाते रिष्तेदार सगे सम्बन्धी भी इनके जीवन को बेकार समझते है । ऐसा नही है कि यह व्यक्ति रचनात्मकता से दूर है बल्कि, अपने जीवन को रचनात्मक बनाने के उनके जीवन में कई अवसर आते है। परन्तु आत्मविष्वास की कमी, अर्थिक संसाधनों का अभाव, औषधियों का नषीला जहर इन व्यक्तियों के जीवन को बोझ महसूस कराता है। रचनात्मक विकास अवरूद्व हो जाता है जीवन का सुख दूर हो जाता है।
जीवन के इसी मुकाम पर ष्यामबाबू भी गुजरे है। रचनात्मक, चिन्तक, विचारक , कवि बनने की चाह कब उन्हंे मानसिक रोगियों की कतार में खड़ी कर गयी उन्हे पता ही नही चला । वे अत्यन्त मेधावी थे, प्यार से उन्हे षिक्षक एवं मित्र, डाक्टर कह कर बुलाते थे। उन्हे ज्ञान की प्यास बुझाते हुये हर समय देखा जा सकता था। वे हर समय गूढ़ साहित्य एवं लेख कहानियां पड़ने में व्यस्त रहते थे। ष्यामबाबू के पिता पुत्र के इस व्यवहार से चिन्तित रहते थे। धीर गम्भीर बुर्जगियत उनके बचपन को समाप्त कर रहा था। बचनपन की षोख चंचलता, बाल सुलभ की्रडायें उनमें कम ही देखने को मिलती थी । जैसा लगता था कि वे जन्म जात बडे भाई का किरदार बखूभी निभा रहे है। अभी तो वे मात्र 15 वर्ष के ही थे, उन्होने रामायण, भागवत कथायें गीता का अध्ययन कर लिया था। सुख सागर के मार्मिक प्रषगों पर करूण होते एवं रूधिर गले से पाठ करते हुये सभी ने देखा होगा। ष्यामबाबू जैसे स्वंय ही भागवत की कथाओं को अपने किरदार में जी रहे हो, उन अध्यात्मिक किरदरों के मनोविज्ञान का अनुभव कर रहे हो। कथा एवं कला, रचनात्मक, मार्मिक करूणा युक्त प्रसंगों को साकार रूप में सजीव जी रहे हो। उनकी हालत देखकर व्यंग्य से मित्र उन्हे पागल कहकर पुकराने लगे। यह व्यंग्य ष्यामबाबू को मानसिक रूप से कचोटता था। प्रति उत्तर स्वरूप उन्होने कभी जवाब नही दिया व मित्रों का अज्ञान समझकर उपेक्षा कर दी।
अब ष्याम बाबू 18 वर्ष के हो गये थे। उच्च षिक्षा हेतु उन्हांेने डिग्री काॅलेज में प्रवेष लिया। उन्हे अपार खुषी तब मिली जब उन्होने बी0एस0सी0 की डिग्री प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की व विष्वविद्यालय में प्रथम आकर अपने गुरूओं का मान बढ़ाया। उनकी अपार खुषी को मित्रों ने यूफोरिया का नाम दिया। जिसे सुख की अनुभूति मानकर ष्यामबाबू ने संतोष कर लिया।
जीवन के इस पडा़व पर ष्यामबाबू ने उच्चतर षिक्षा अध्ययन करने की ठान ली। ष्यामबाबू की सफलता ने मित्रों के व्यवहार में परिवर्तन कर दिया था। वे अब ष्याम बाबू से ईष्र्या करने लगे थे। व उनका असहयोग षुरू हो गया था। बात-बात पर उलझना, चिड-चि़ड़ाना, व्यंग्य बाण मारना मित्रों के व्यवहार में षुमार हो गया था। ष्यामबाबू जीवन के इस मुकाम पर अकेले पड़ गये थे। उनका जीवन संघर्षमय हो गया था। ईष्र्या, द्वेष, उपेक्षा से ष्यामबाबू का मन अवसाद ग्रस्त हो गया था। उन्हे पता ही नही चला कि कब नकारात्मक विचारों ने उनके मन में घर कर लिया था। जीवन की खुषियां कब दूर होती चली गयी पता ही नही चला था। ष्यामबाबू जीवट के व्यक्तिव के थे। हारना उन्होने कभी नही सीखा था। उनकी तर्क षक्ति अकाट्य हुआ करती थी। जो उन्हे बेमिसाल बनाती थी । बचपन से वे रचनात्मक षक्ति के भण्डार थे। कविता कहाॅनियों का सृजन उनकी मेधा का पुरस्कार था। परन्तु अकेलापन उन्हे काटने को दौड़ता था। अच्छे मित्रों के अभाव ने उन्हे व्यथित कर दिया था। अब उन्हे केवल अपने परिवार का ही सहारा था। जो हर वक्त उनके साथ खड़ा था।
श्माता की ममता एवं पिता का सम्बल पुत्र के मनोबल के लिये अत्यन्त आवष्यक हैं। जीवन के हर दुष्कर मोड़ पर मात पिता का साया हमे संरक्षण देता हैं। आत्मविष्वास में बढ़ोत्तरी करता हैं। एवं मानसिक रूप से सषक्त बनाता हैश्।
चिन्ता एवं सघन विचारो से ग्रस्त ष्यामबाबू की हालत माता पिता ने देखी, तो सगे सम्बन्धियों से बात की। ष्यामबाबू अपने संगठित जीवन से बिखर गये थे। उनकी विद्या अध्ययन के प्रति रूची जाती रही। रहनसहन व दैनिक दिनचर्या भी अनियमित हो गयी। वे देर तक षयन करते थे। प्रातः की खुली धूप भी उन्हे अरूचिकर प्रतीत होती थी। अपने जीवन के प्रति इस अरूची एवं बेरूखी से माता पिता परेषान थे। अन्ततः उन्होने ने सभी सामान्य चिकित्सकों से लेकर विषेषज्ञों तक को भी दिखाया व परामर्ष लिया सभी का कहना था इन्हे कोई रोग नही है। मां की ममता ने वैज्ञानिक पद्यतियों का मोह छोड़कर झाड़-फूक, ओझा गुनी के दरबार पर भी दस्तक दी सभी ने उन्हे किसी रोग व भूत प्रेत की सम्भावना से इन्कार किया। ष्यामबाबू का वैज्ञानिक मन कौतूहलवष इन समस्त परावैज्ञानिक षक्तियों का अध्ययन कर रहा था । आखिर उनके मन में भी एक प्रष्न उभरा ? आखिर उन्हे है क्या ? आखिर आपने जीवन से बेरूखी क्यो ?
उच्चतर षिक्षा के प्रथम मुकाम पर आखिरकार इस प्रष्न का उत्तर मिल ही गया। मां ने स्वंय अभिवावक की भूमिका निभाते हुये उन्हे मानसिक चिकित्सक से परामर्ष लेेने के लिये कहा। इतना ही नही वे स्वंय साथ में गयी और उन्होने ने चिकित्सक महोदय से अनुरोध किया कि वे ष्यामबाबू को स्वस्थ्य कर दें, ताकि उनके जीवन की नयी षुरूआत हो सके।
श्माता पिता के साये में सरल सी दिखने वाली जिंदगी उनके बिना कितनी दुरूह हो जाती है यह व्यक्ति का अकेलापन ही बता सकता है। जब सभी स्वार्थी मित्र एवं रिषतेदार किनारा कर लेते है एवं मात्र स्वार्थवष ही व्यक्ति का उपयोग करते है । तब रिष्ता द्विपक्षी न होकर एकपक्षी व स्वार्थपरक हो जाता हैश् ।
ष्ष्यामबाबू अपने जीवन के कटु अनुभव से सीख चुके थे। अतः उन्होनें एकला चलो के सिद्यान्त पर अमल करना ही श्रेयस्कर समझा। औषधियों के श्रेष्ठ प्रभाव ने उन्हें अवषाद के घने जाल से मुक्त किया। तब ष्षनंैः षनंैः उन्हे ख्ुाली हवा का आंनद आने लगा । एक बार पुनः उनके मन में उंमग भरने लगा । उच्चतर षिक्षा पूरी कर उन्होने ने नौकरी कर ली । एवं 30 हजार प्रति माह की पगार से उनका जीवन सुखमय हो गया। षादी के रिष्ते भी आने लगे। अब तक ष्यामबाबू 25 वर्ष के हो गये थे। माता -पिता ने अच्छा परिवार देखकर सुन्दर सुषील कन्या से विवाह कर दिया विवाहोपरान्त दोनो प्राणी जीवन की कष्ती खेने लगे। उन्होने अपनी पत्नी का नाम प्यार से ष्यामा रख दिया था ।ष्ष्यामा की एक बडी बहन थी। उसके पति ने उसे त्याग दिया था। उसके दुख से दुखी होकर ष्यामा कभी-कभी अपने जीजा जी को बुरा भला कहनेे लगती थी। ष्यामबाबू के समझाने पर भी चुप न होती थी। इसी बात पर पति पत्नी के बीच में झगड़ा होता था। एक दिन ष्यामा को चुप रहने की हिदायत देते हुये ष्यामबाबू ने ष्यामा का गला पकड़ लिया। और उसे चुप कराने लगे । ष्यामा आधुनिक युग की युवती थी। उसने पति परित्यकता बहन को भी देखा था। अतः पति के इस षारीरिक उत्पीड़न को उसका निर्मल मन सहन नही कर सका, एवं उसे अत्यन्त मानसिक पीड़ा भी महसूस हुयी । उसने अपने पति का घर छोड़ने का मन बना लिया । मानसिक रोग से व्यथित ष्यामबाबू की नाव बीच मझधार में खडी थी, और मांझाी नाव छोडकर जा रहा था । एक बार जीवन की इस विषम परिस्थिति में ष्यामबाबू पुनः अकेले पड़ गये थेे।
ष्यामा जी आधुनिक युग की महिला थी। उनका परिवार भी भौतिकवादी धनाड्य, आधुनिक परिवार था। किसी पारिवारिक सदस्य की प्रताड़ना चाहे स्वाभाविक ही क्यों न हो, उन्हे बरदास्त न था। उन्होेने कोर्ट में ष्यामबाबू के खिलाफ मुकदमा दायर कर दिया। दहेज मांगने एवं दहेज उत्पीड़न के आरोप में एवं हत्या के प्रयास में मुकदमा दर्ज किया गया।
ष्यामबाबू पर अनायास मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा था। बड़े बूढे कहते है श्षादी एक ऐसा लडडु ह,ै जो खाये वो पछतायें जो न खाये वो पछतायेंश् ।
जीवन के मधुर पलो की मिठास कडुवाहट में बदल गयी थी । कोर्ट में ष्यामबाबू पर वकील ने अनेक अरोप लगाये। लोभी, लालची, महिला विरोधी, समाज द्रोही, भूखा भेड़िया अदि अनके विषेषणों से उनका मान मर्दन होता रहा। ष्यामा जी ने उन्होने नषीली दवाओं का आदी बताते हुये पागल, को्रधी, वहसी तक करार दिया। यह सवेदंनहीनता की पराकाष्ठा थी ।
माननीय न्यायधीष के समक्ष लगभग रूंधे गले से ष्याम जी ने अपनी आप बीती सुनाई। किस तरह ष्यामा जी ने बात का बतंगण बना दिया और उनके परिवार वालों ने उस आग में घी डालने का काम किया। सब कुछ सत्य बताते हुये उन्होेने विद्वान न्यायाधीष महोदय से निर्णय करने का अनुरोध किया एवं गलती साबित होने पर मौत से भी बढ़कर जो सजा मुकर्रर की जायें, स्वीकार करने के लिये कहा ।
उन्होने ने कहा जज साहब अवसाद ग्रस्त जीवन वैसे भी रहम का मोहताज होता है। क्योकि एक न एक दिन गम्भीर अवस्था में होने पर जीवन से मुक्ति ही अवसाद का अन्त है । इस रोग का कोई निदान नही है। यदि अपने ही साथ छोड़कर जीवन नैया डुबो रहे हो तो इस जीवन का क्या अर्थ रह जाता है। यह आप पर निर्भर है कि घर की दहलीज में रहने का मुझे अधिकार है, या जेल की सीखचों के पीछे घुट-घुट कर मरने का । ष्यामा आज भी मेरे लिये अजीज है, उसका सम्मान मेरे लिये सर्वोपरि है, क्योकि वो महिला है, मेरी माॅं भी महिला है। मैने बचपन से अघ्यात्म जिया है, उसे साकार रूप में जीवन में उतारा है। यदि ष्यामा जी आधुनिकता एवं पाष्चात्य का चोला छोड़ कर मुझे इस धार्मिक एवं सांस्कृतिक रूप में अपनाने को तैयार है, तो उनके लिये मेरे दरवाजे हमेषा खुले है। मेरा जीवन एक खुली हुयी पुस्तक की तरह है। जिसे ष्यामा जी कभी भी पढ सकती है। जज साहब के समझाने पर ष्यामा जी ने ष्यामबाबू को स्वीकार कर लिया। जीवन के झंझावातों से थपेड़े खाते हुयी उनका नाव किनारे को चली ।
श्उपरोक्त कथानक मानसिक रूप से विक्षिप्त व्यक्तियों पर आधारित है, जिन्हे समाज तिरस्कार एवं उपेक्षा से देखता था। उन्हे जमीन जयदाद की मल्कियत से वंिचंत कर दिया जाता था । आज मानसिक रोगों के उपचार स्वरूप न केवल ये व्यक्ति सम्मनित जीवन जी रहे है। बल्कि अपने रचनात्मक षक्तियों से विष्व में नये मुकाम भी हासिल किया है। वे षिक्षण के साथ-साथ नौकरी एवं विवाह बंधन में बधनें की योग्यता भी रखते है। एवं प्यार एवं सम्मान से जीवन जीने की कला भी जानते है । सर अलवर्ट आइंस्टीन, सर आइजक न्यूटन एवं वर्तमान समय में सर स्टीफन हाॅकिंग ऐसे ही प्रसिद्व व्यक्ति हंै जो मानसिक विक्षप्तता के षिकार बने परन्तु उपचार के उपरान्त विज्ञान की दुनियां में नये शिखर की उचांइयों को प्राप्त किया।