दीवाली के दिये जले
दीवाली के दिये जले पर,
घर अपने अँधियारा है ।
कोई आख़िर मुझे बताये,
हक़ ये किसने मारा है ।…
शनै-शनै निगले है’ ग़रीबी,
आफ़त गला मरोड़ रही ।
हम पर ये इल्ज़ाम लगा है,
उनसे अपनी होड़ रही ।
रूखा-सूखा खाकर पलते,
वैभव सिर्फ तुम्हारा है ।
कोई आख़िर मुझे बताये,
हक़ ये किसने मारा है ।….
प्राण हमारे मुँह को आते,
लहू में’ विपदा दौड़ रही ।
हाय-हाय बेदर्द विधाता,
कमर ग़रीबी तोड़ रही ।
दुनिया वाले फिर भी जलते,
क्या अपराध हमारा है ?
कोई आख़िर मुझे बताये,
हक़ ये किसने मारा है ।…..
खाट सिरहाने बँधी लक्ष्मी,
आँखें हमें तरेर रही ।
अपनी फूटी क़िस्मत देखो,
पाल जनम का बैर रही ।
नारायण भी हमको छलते,
तम ने पैर पसारा है ।
कोई आख़िर मुझे बताये,
हक़ ये किसने मारा है ।….
दीपक चौबे ‘अंजान’