दीवाली का उत्सव
कहानी-‘‘दिवाली का उत्सव’’
-राजीव नामदेव ‘राना लिधौरी’
दिवाली उत्सव आने के तीन दिन रह गये थे। दिल्ली में मजदूरी कर रहे रामलाल ने सोची कि कल धनतेरस है शाम तक टीकमगढ़ में अपने गाँव में घर पर पहुँच ही जाऊँगा इसलिए उसनेे जल्दी से बाजार जाके बच्चों के लिए कुछ कपड़ा और घरवाली के लिए एक साड़ी खरीद ली। शाम को घर के लिए दिल्ली स्टेशन से रेल में बैठ गया। सवेरे के समय झाँसी स्टेशन में उतरा और उसने अपना बैग कंधा पर डाला और जल्दी से आॅटो में बैठकर मोटर स्टेण्ड पहुंच गया जब उसने आटोवाले को पैसा देने के लिए जेब हाथ डाला, तो दंग रह गया, किसी ने उसकी जेब काट के रूपैया निकाल लिए, पूरे बीस हजार जोड़कर के लाया था, सारे चले गये। वो तो यह अच्छा हुआ कि उसने दो सौ रुपए दूसरी जेब में रख लिए थे,सो वे बच गए।
टुइँयाँ सी मुइयाँ लटकाए हुए घर आया तो घरवाली ने पूछी-क्या हो गया़ ? तो उसने सब राम कथा सही-सही सुना दी। घरवाली थोड़ी होशियार थी, सो वो बोली कि-अब जो होना था सो हो गया अब रोने धोने से, तो वो आने वाला नहीं। ये कपड़ा तो बच गए हमारे लिए ये ही बहुत है हम इन्हीं को पहन कर दिवाली का उत्सव मना लेगें। रामलाल ने कहा कि पटाखे के लाने तो पैसा बचे नहीं, हम क्या करें ? घरवाली ने कहा कि-पटाखे का क्या करना इस बार हम घर के बाहर खडे़ होके दूसरो के छोडे़ हुए पटाखे देख कै संतोष कर लेगे।
और फिर दिवाली के दिन रात में….. राम लाल और उसकी घरवाली तो लाज शरम के मारे घर से ही बाहर नहीं निकले, पर उसकेे बच्चें बाहर चलते हुए पटाखे दरवाजे पर खड़े होकर टुकुर-टुकुर देख रहे थे।
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-राजीव नामदेव ‘राना लिधौरी’
संपादक’आकांक्षा’पत्रिका
अध्यक्ष मप्र लेखक संघ टीकमगढ़
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