फकीरी/दीवानों की हस्ती
अलग रंग है अलग ढ़ंग है, दीवानों की हस्ती में।
जिन्दादिली से ज़िंदगी हम, काट रहें हैं मस्ती में।
हुआ मुक्त सारे बंधन से,पर हित में अर्पित जीवन,
समय सहारे छोड़ चले खुद,तूफानों की बस्ती में।
आज यहाँ कल वहाँ कूच है,करता नित अविरत फेरा,
जो आनंद फकीरी में है,होता नहीं परस्ती में।
नये सफर पर चलते रहते, भावों की गठरी बाँधे,
अपने मन मरजी के मालिक,नहीं रुके श्रावस्ती में।
बहता पानी रमता जोगी, एक जगह कब टिकता है,
कौन भला इसको रोकेगा,बेवजह जबरदस्ती में।
चाह नहीं है धन दौलत का,न किसी रिश्ते नाते का,
नहीं कभी कुछ सोचा हमनें,लगे रहे बस गश्ती में।
कण-कण को अपनाता जाता,हर-क्षण को ऐसे जीता,
कुछ यादें दुनिया को देकर,बना शख्शियत सस्ती में।
छक कर सुख दुख के घूँटों को,एक भाव से पीते हैं,
हर्ष और संघर्ष भरा है, इस जीवन की कश्ती में।
-लक्ष्मी सिंह
नई दिल्ली