दीवानी कान्हा की
दीवानी कान्हा की
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मैं हुई बावरी कान्हा के दरस की
मैं हुई दीवानी कान्हा की बंसी की
मैं हुई पागल कान्हा के महारास की
मैं हुई बावली कान्हा की अदाओं की
क्यों छोड़ चले मुझे जमुना तट पर यूँ
क्यों विरह की आग में तपाते कान्हा
क्यों नैनों में आकर बस नहीं जाते हो
क्यों हर क्षण क्षण मुझे तुम रुलाते हो
मेरा हाथ थाम लो तुम कान्हा अब तो
मेरे जीवन की पतवार सम्भालो अब तो
डूबती नैया का तुम ही सहारा हो मोहन
भवसागर पार लगा तो अब कृष्ण कन्हाई
कुंज गलियों में तुम्हें खोजती फिरूँ मैं
मनमोहक छवि को एकटक निहारूं मैं
सूने सूने पनघट खग कलरव भी न करते
गूँगी बहरी सी विरह में पागल हुई कान्हा
सूनी पड़ी कदम्ब की डाली दिखती तन्हा
गोपियाँ रुदन कर रहे कहाँ छोड़ चले कान्हा
अंतर्मन में दरस की आस जगा चले गए मोहन
हे गिरधारी यशोदानंदन मैं बस तेरी बाट निहारूँ
-डॉ. राजेश कुमार शर्मा पुरोहित
भवानीमंडी