दीवानगी हद में रही तो मोहब्बत कैसी
दीवानगी हद में रही तो मोहब्बत कैसी
किसी हश्र-ओ-अंजाम से डरी तो मोहब्बत कैसी
छलक भी जाने दो इन आँखों के जाम अब तो
पलकों में छिपा के रखी तो मोहब्बत कैसी
रुसवाइयों के डर से जो तर्क़-ए-वफ़ा कर दी
ज़िंदगी दिल पे ना मिटी तो मोहब्बत कैसी
तेरे तसव्वुर से सजी वो तस्वीर-ए-ज़िंदगी
मिरे रंग में ना ढली तो मोहब्बत कैसी
इक बेदम से बहाने से तेरे यार मेरे
बेसबब दुश्वरियाँ सही तो मोहब्बत कैसी
करो वादा जब भी मिलें भूल के जहाँ मिलें
कुछ देर भी तस्कीं नही तो मोहब्बत कैसी
‘सरु’ की ग़ज़ल में चर्चा तेरा ज़िक्र तेरा है
रहे बात वहीं की वहीं तो मोहब्बत कैसी